कुहरे की फुहार से
ठहर गया जन-जीवन
शीत की मार से
काँप रहा मन और तन
ओढ़कर रजाई
काका ने तसले में
लकड़ियाँ सुलगाई
गलियाँ हैं सूनी
सड़कें वीरान हैं
टोपों से ढके हुए
लोगों के कान हैं
खाने में खिचड़ी
मटर का पुलाव है
जगह-जगह जल रहे
आग के अलाव है
जमाखोरी करके लोग
बन गये सेठ हैं
विलम्बित उड़ाने हैं
ट्रेन सभी लेट हैं
राजनीतिक भिक्षुओं के
भरे हुए पेट हैं
चुनावी मौसम में हवा बड़ी सर्द है भाषण से हो रहा गले में दर्द है जनता के बीच में जाना मजबूरी है मत पाने के लिए झूठ भी जरूरी है |
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शुक्रवार, 16 जनवरी 2015
"ठहर गया जन-जीवन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर गीत ,ठहर गया जनजीवन
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना...सच में बहुत सता रही है सर्दी
जवाब देंहटाएंकुहरे की मार सब पर हर जगह ..
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक प्रस्तुति .
सत्य मेँ "ठहर गया जीवन" बहुत सुन्दर रचना.....
जवाब देंहटाएंसत्य है दुनिया मेँ इतने लोग एक दुसरे को देख कर जलते हैँ किन्तु ये अभागन ठण्ढ़ बढ़ती ही जा रही है.....
बहुत सुन्दर गीत !
जवाब देंहटाएंसूर्य पर्व -मकर संक्रांति
संत -नेता उवाच !
बहुत सुंदर. मौसम हर पल रंग बदल रही है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंवाकई ठहर गया है जन जीवन। सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएं