रुतबे जिनके बड़े-बड़े हैं,
देख रहे वो दिन में सपने।
सौदागर तैयार खड़े हैं,
कैसे शब्द बचेंगे अपने।।
ग़ालिब़ से वो ग़ज़ल माँगते,
तुलसी से दोहा-चौपाई।
बच्चन जी से माँग रहे हैं,
मधुशाला की कुछ रूबाई।
जिद करने पर लोग अड़े हैं,
गाय कसाई चले हड़पने।
सौदागर तैयार खड़े हैं,
कैसे शब्द बचेंगे अपने।।
मीठी-मीठी बात बनाते,
अपने-अपने दाँव चलाते।
खनक दिखा करके सिक्कों की,
उलटी गिनती हमें सिखाते।
“रूप” बदलकर लोभी बगुले,
लगे राम की माला जपने।
सौदागर तैयार खड़े हैं,
कैसे शब्द बचेंगे अपने।।
होते हैं अलमस्त सुख़नवर,
फाके-मस्ती में जीते हैं।
अमृत बाँट रहे दुनिया को,
लेकिन स्वयं गरल पीते हैं।
काँटों की गोदी में पलकर,
चले चहकने और महकने।
सौदागर तैयार खड़े हैं,
कैसे शब्द बचेंगे अपने।।
इन्सानों की बस्ती में अब,
धर्म नहीं, ईमान नहीं है।
खुल्लम-खुल्ला न्याय बिक रहा ,
लगता कोई विधान नहीं है।
उपवन में आवारा माली,
कोमल कलियाँ लगे मसलने।
सौदागर तैयार खड़े हैं,
कैसे शब्द बचेंगे अपने।।
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मंगलवार, 6 जनवरी 2015
"गीत-लगे राम की माला जपने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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चिंतनशील रचना ..
जवाब देंहटाएंbahut sundar geet waah
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंअति सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंhttp://prathamprayaas.blogspot.in/- बिना हाथों की पहली महिला पायलेट – “जेसिका कॉक्स”
सत्य कहा सर! उत्तम कविता
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना सर |
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी बधाई सुन्दर प्रस्तुति के लिये ....
जवाब देंहटाएं