निर्वाचन में आम ने, जिनको दिया नकार।
वो संसद में बैठकर, चला रहे सरकार।।
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केवल भारत देश में, खुल जाती तकदीर।
राज्यसभा से आ गये, हारे हुए फकीर।।
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दल-बल से हारा यहाँ, लोकतन्त्र कानून।
जन-गण का तो हो गया, भावनाओं का खून।।
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दुनियाभर में कहीं भी, मिलती नहीं मिसाल।
लेकिन अपने देश में, होते सदा कमाल।।
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देख दुर्दशा देश की, मन हो रहा अधीर।
अनुकम्पा की पंक से, दूषित पावन नीर।।
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आज पुजारी दे रहे, भक्तों को अवसाद।
स्वारथ का चश्मा पहन, बाँट रहे परसाद।।
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जहाँ जरूरत खास है, उसमें नहीं सुधार।
संसद में कानून पर, होता नहीं विचार।।
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शासक चाहे कोई हो, सबकी है ये रीत।
छाँट-छाँटकर ला रहे, सब ही अपने मीत।।
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पारदर्शिता का नहीं, रहा कोई भी खेल।
जोड़-तोड़ से फल रही, लोकतन्त्र की बेल।।
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मंगलवार, 24 मार्च 2015
"दोहे-लोकतन्त्र की बेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सटीक और सार्थक रचना l
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और सार्थक रचना l
जवाब देंहटाएंसटीक दोहे हैं ... अपने देश में तो प्रधान मन्त्री तक बिना इलेक्शन लड़ के १० साल राज कर गये ...
जवाब देंहटाएंजय हो भारत देश महान ....
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे.
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