मौसम है बदला हुआ, बदले रीति-रिवाज।
घोड़ों से भी कीमती, गधे हो गये आज।। बनी हुई सम्भावना, नियमित नित्य अनन्त।
बिकते ऊँचे दाम में, राजनीति के सन्त।।
जनसेवा के नाम पर, करते ओछे काम।
इसीलिए तो हो रहा, लोकतन्त्र बदनाम।।
बाहर बने कपोत से, भीतर से हैं काग।
महज दिखावे के लिए, सुना रहे हैं राग।।
सत्ता-सरिता में बढ़ी, शैतानों की बाढ़।
चौमासे सा बरसता, गरमी में आषाढ़।।
आज दम्भ में चूर हैं, पीकर गाँजा-भाँग।
खींच रहे हैं नशे में, सत्ता की सब टाँग।।
केंचुलियों में ढक लिए, नेताओं ने दाग।
लोकतन्त्र को डस रहे, आदम बनकर नाग।।
थामी सबने हाथ में, छल-बल की पतवार।
आपाधापी में चले, सागर करने पार।।
ओढ़ लबादा बाघ का, शेर बन गये स्यार। लहराते हैं हवा में, सब अपने हथियार।। |
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सोमवार, 16 मार्च 2020
दोहे "घोड़ों से भी कीमती, गधे हो गये आज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सुंदर और सार्थक दोहे।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17 -3-2020 ) को मन,मानव और मानवता (चर्चा अंक 3643) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर दोहे।
जवाब देंहटाएंऐसे ही स्वार्थी, नामुराद, निकज्जो से भरी-पटी है राजनितिक गलियारे!
जवाब देंहटाएंबहुत सही!
गहरा व्यंग्य
जवाब देंहटाएंमेरी आज की ग़ज़ल भी हमारे प्रदेश की राजनीतिक घटनाओं पर केंद्रित है।