जिन्दगी के गीत गाता जा रहा हूँ
साँस की सरगम सुनाता जा रहा हूँ
पाँव बोझिल हैं थकी है पीठ भी
बोझ जीवन का उठाता जा रहा हूँ
मिल गया जो भी नजराना मुझे
शान से उसको लुटाता जा रहा हूँ
उम्र अब कितनी बची है क्या पता
घोंसला फिर भी बनाता जा रहा हूँ
कुछ पुराने साज दामन में समेटे
सादगी से सुर सजाता जा रहा हूँ
है अमावस ज्ञान का पसरा अँधेरा
आस का दीपक जलाता जा रहा हूँ
मैं उजड़ते बाग का बूढ़ा शजर हूँ
फर्ज को अपने निभाता जा रहा हूँ
उस बुलन्दी के बचे जो भी निशां
खैर मैं उनकी मनाता जा रहा हूँ
जिन्दगी के जलजलों की उलझनों में
'रूप' की शतरँज बिछाता जा रहा हूँ
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शनिवार, 21 मार्च 2020
ग़ज़ल "साँस की सरगम सुनाता जा रहा हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जिन्दगी के जलजलों की उलझनों में
जवाब देंहटाएं'रूप' की शतरँज बिछाता जा रहा हूँ
बहुत ख़ूब
आध्यात्म और दर्शन को ग़ज़ल के जरिए बख़ूबी बयां किया है आपने 🙏
मैं उजड़ते बाग का बूढ़ा शजर हूँ
जवाब देंहटाएंफर्ज को अपने निभाता जा रहा हूँ
वाह!!!
क्या बात....
लाजवाब गजल।
कुछ पुराने साज दामन में समेटे
जवाब देंहटाएंसादगी से सुर सजाता जा रहा हूँ।
वाह!!
बहुत उम्दा/बेहतरीन ग़ज़ल ।
कुछ पुराने साज दामन में समेटे
जवाब देंहटाएंसादगी से सुर सजाता जा रहा हूँ
बहुत खूब !!
अत्यन्त सुन्दर गज़ल ।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंजिन्दगी के गीत गाता जा रहा हूँ
जवाब देंहटाएंसाँस की सरगम सुनाता जा रहा हूँ
बहुत खूब... सर ,सादर नमस्कार