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दरक़ती जा रही हैं नींव, अब पुख़्ता ठिकानों की
तभी तो बढ़ गयी है माँग छोटे आशियानों की
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जिन्हें वो देखते कलतक, हिक़ारत की नज़र से थे
उन्हीं के शीश पर छत, छा रहे हैं शामियानों की
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बहुत अभिमान था उनको, कबीलों की विरासत पर
हुई हालत बहुत खस्ता, घमण्डी खानदानों की
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सियासत के समर में मिट गया, अभिमान दल-बल का
अखाड़े में धुलाई हो गयी, जब पहलवानों की
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लगा झटका-बढ़ा खटका, खनककर आइना चटका
बग़ावत कर रहीं अब पगड़ियाँ, दस्तारखानों की
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जगा है आम जब से, खास को होने लगी चिन्ता
अचानक आ गयी है याद, मज़लूमों-किसानों की
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सलाखों का समाया डर, लगे अब काँपने थर-थर,
उज़ाग़र ख़ामियाँ जब हो गयीं, इन बे-ईमानों की
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विदेशी बैंक में जाकर, छिपाया देश के धन को
खुलेगी पोल-पट्टी अब, शरीफों के घरानों की
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सियासी गिरगिटों के “रूप” की, पहचान करने को
निकल आयीं सड़क पर टोलियाँ, अब नौजवानों की
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गुरुवार, 19 मार्च 2020
ग़ज़ल "माँग छोटे आशियानों की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत खूब
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (20-03-2020) को महामारी से महायुद्ध ( चर्चाअंक - 3646 ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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आँचल पाण्डेय
बहुत सुंदर गज़ल आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा आपने।
सादर प्रणाम 🙏
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंMere blog par aapka swagat hai.....
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 08 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
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