मैं हिमगिरि हूँ सच्चा प्रहरी, रक्षा करने वाला हूँ। शीश-मुकुट हिमवान अचल हूँ, सीमा का रखवाला हूँ।। मैं अभेद्य दुर्ग का उन्नत, बलशाली परकोटा हूँ। मैं हूँ वज्र समान हिमालय, कोई न छोटा-मोटा हूँ।। माँ की आन-बान की खातिर, सजग हमेशा खड़ा हुआ हूँ, दुश्मन को ललकार रहा हूँ, मुस्तैदी से अड़ा हुआ हूँ, प्राणों से प्यारी माता के लिए, वीर बलिदान हो गये। संगीनों पर माथा रखके, सरहद पर कुर्बान हो गये।। मैं सागर हूँ देव-भूमि को, दिन और रात सवाँर रहा हूँ। मैं गंगा के पावन जल से, माँ के चरण पखार रहा हूँ।। (चित्र गूगल छवि से साभार) |
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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
"सीमा का रखवाला हूँ!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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बहुत खूबसुर मनभावन रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना,धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंछंदबद्ध कविता का जादू आपकी कविताओं में है.. सुंदर कविता..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और प्रेरक रचना
जवाब देंहटाएंaap to har baar hee kamaal karte hain shastri ji!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और दिल को लुभाती रचना।
जवाब देंहटाएंdesh ke prahari hi asli hero hai hamare..!
जवाब देंहटाएंलाजवाब कविता...रोंगटे खड़े हो जाते हैं पढ़कर.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर एवं भावमय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमयंक जी, बहुत ही प्रेरणाप्रद रचनाएँ हैं। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबढ़िया!
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बहुत ख़ूबसूरत रचना!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूबसूरत.
जवाब देंहटाएंदेश भक्ति गीत .
achchi rachna hai.
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन!!
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