ठहर गया जन-जीवन।
शीत की मार से,
काँप रहा मन और तन।
--
माता जी लेटी हैं,
ओढ़कर रजाई।
काका ने तसले में,
लकड़ियाँ सुलगाई।
--
गलियाँ हैं सूनी,
सड़कें वीरान हैं।
टोपों से ढके हुए,
लोगों के कान हैं।
--
खाने में खिचड़ी,
मटर का पुलाव है।
जगह-जगह जल रहा,
आग का अलाव है।
--
राजनीतिक भिक्षु,
हुो रहे बेचैन हैं।
मत के जुगाड़ में,
चौकन्ने नैन हैं।
--
विलम्बित उड़ाने हैं,
ट्रेन सभी लेट हैं।
ठण्डक से दिनचर्या,
हुई मटियामेट है।
--
मँहगाई की आग में,
सेंकते रहो बदन।
कुहरे की फुहार से,
ठहर गया जन-जीवन...।
हर जाड़े में ऐसा ही होता...
जवाब देंहटाएंमँहगाई की आग में,
सेंकते रहो बदन।
कुहरे की फुहार से,
ठहर गया जन-जीवन
ठण्ड के मौसम की गर्म गर्म रचना, बधाई.
सामायिक सुंदर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: नये साल का पहला दिन.
बहुत सुन्दर सामयिक
जवाब देंहटाएंकाफी उम्दा प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (05-01-2014) को "तकलीफ जिंदगी है...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1483" पर भी रहेगी...!!!
आपको नव वर्ष की ढेरो-ढेरो शुभकामनाएँ...!!
- मिश्रा राहुल
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंकुहरे की फुहार से,
जवाब देंहटाएंठहर गया जन-जीवन।
शीत की मार से,
काँप रहा मन और तन।
--
माता जी लेटी हैं,
ओढ़कर रजाई।
काका ने तसले में,
लकड़ियाँ सुलगाई।
--सुन्दर शब्द- चित्र बे -ईमान मौसम का
कुहरे की फुहार से,
जवाब देंहटाएंठहर गया जन-जीवन।
शीत की मार से,
काँप रहा मन और तन।
--
माता जी लेटी हैं,
ओढ़कर रजाई।
काका ने तसले में,
लकड़ियाँ सुलगाई।
गलियाँ हैं सूनी,
सड़कें वीरान हैं।
टोपों से ढके हुए,
लोगों के कान हैं।
खाने में खिचड़ी,
मटर का पुलाव है।
जगह-जगह जल रहा,
आग का अलाव है।
--
राजनीतिक भिक्षु,
हुो रहे बेचैन हैं।
मत के जुगाड़ में,
चौकन्ने नैन हैं।
--सुन्दर शब्द- चित्र बे -ईमान मौसम का
मन सिकुड़ा सा, ठंड बढ़ी है
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति -
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
सादर -
सुन्दर प्रस्तुति -आभार
जवाब देंहटाएं