कड़ाके की सरदी में, ठिठुरा बदन है
उड़ाते हैं आँचल, हवा के झकोरे,
काँटों की गोदी में, पलता सुमन है
मिली गन्ध मधु की, चले आये भँवरे
हँसे फूल-कलियाँ, महकता चमन है
परेशान नदियाँ है, नालों के डर से.
बिना जल के होता नहीं आचमन है
भरी “रूप” में आज कितनी मिलावट
खुश होके ग़म बाँटती अंजुमन है
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रविवार, 18 नवंबर 2018
ग़ज़ल "महकता चमन है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)

वाह अप्रतिम अभिराम बहुत उम्दा ।
उत्तर देंहटाएंहर शेर लाजवाब।
बहुत सुन्दर।
उत्तर देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-11-2018) को "महकता चमन है" (चर्चा अंक-3160) पर भी होगी।
उत्तर देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
vigyanpaksh.blogspot.com
उत्तर देंहटाएंveerujan.blogspot.com
veeruji05.blogspot.com
शीतल धरा और शीतल गगन है
कड़ाके की सरदी में, ठिठुरा बदन है
ग़ज़ल शास्त्री की ठुमकती बहुत है ,
हवाओं का आँचल उड़ाती बहुत है।