सूरज चमका नीलगगन में, फिर भी अन्धकार छाया
धूल भरी है घर आँगन में, अन्धड़ है कैसा आया
वृक्ष स्वयं अपने फल खाते, सरिताएँ जल पीती हैं
भोली मीन फँसी कीचड़ में, मरती हैं ना जीती हैं
आपाधापी के युग में, जीवन का संकट गहराया
मौज मनाते बाज और भोली चिड़ियाएँ सहमी हैं
दहशतगर्दों की उपवन में, पसरी गहमा-गहमी हैं
साठ-गाँठ करके महलों ने, जुल्म झोंपड़ी पर ढाया
खून-पसीने से श्रमिकों की, फलते हैं उद्योग यहाँ
निर्धनता पर जीवन भारी, शिक्षा का उपयोग कहाँ
धनिक-बणिक धनवान हो गये, परिश्रमी धुनता काया
अन्धे-गूँगे-बहरों की, सत्ता-शासन में भरती है
लेकिन जनता लाचारी में, मँहगाई से मरती है
जो देता माया की झप्पी, उसको ही मिलती छाया
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गुरुवार, 26 सितंबर 2013
"जुल्म झोंपड़ी पर ढाया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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काश कोई इन झोंपड़ियों में प्रेम पहुँचाये।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंअन्धे-गूँगे-बहरों की, सत्ता-शासन में भरती है
जवाब देंहटाएंलेकिन जनता लाचारी में, मँहगाई से मरती है,,,
बहुत सुंदर रचना !
नई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )
बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट साधू या शैतान
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