आज अपने देश के, अच्छे नहीं आसार हैं
फूल भी अपने चमन के, हो गये अब खार हैं
तीर तरकश में बहुत होंगे हमें सब कुछ पता,
जानते लड़ना नहीं, पर हाथ में हथियार हैं
है बहुत बेचैन दिल नादानियों को देखकर,
थे कभी शागिर्द जो, करने लगे वो वार हैं
साथ परछाई नही देती कभी तंगहाल में
ज़र के पीछे भागते देखे यहाँ किरदार हैं
अब लकड़हारों से हम कैसे बचायें शाख़ को
अंजुमन पर आज अपनी, ग़ैर कब़्ज़ेदार हैं
हो भले ही दुश्मनी लेकिन समझदारी तो हो
अब दरकते पत्थरों के, मिट गये आधार हैं
“रूप” नालों
ने दिखाया एक ही बरसात में
खुदकशी करने को, पर्बत हो रहे तैयार हैं
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बुधवार, 2 जुलाई 2014
"ग़ज़ल-अच्छे नहीं आसार हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बढ़िया है आदरणीय-
जवाब देंहटाएंआभार-
बहुत सुंदर गजल ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब... सुन्दर रचना के लिए दाद स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंsundar aur bhaavpoorn rachanaa
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया है...
जवाब देंहटाएंबिलकुल ठीक और मेरे मन की बात कही है आप ने !
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