विदा हुई बरसात, महीना अब असौज का आया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। श्राद्ध गये, नवरात्र आ गये, मंचन करते, पात्र भा गये, रामचन्द्र की लीलाओं ने, सबका मन भरमाया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। विजयादशमी आने वाली, दस्तक देने लगी दिवाली, खेत और खलिहानों ने, कंचन सा रूप दिखाया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। मूँगफली के होले भाये, हरे सिंघाड़े बिकने आये, नया-नया गुड़ खाने को, अब मेरा मन ललचाया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। |
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016
गीत "कंचन सा रूप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, 29 सितंबर 2016
"मेरे मंजुल भाव" मेरी श्रीमती का जन्मदिन (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंजुल माला के लिए, लाया सुमन समेट।
श्रीमती का जन्मदिन, दूँगा उनको भेंट।।
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यज्ञ-हवन करके करूँ, विधना से फरियाद।
सजनी के संसार में, कभी न हो अवसाद।।
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उपवन में मंगल रहे, खिलें खुशी के फूल।
ग्रह और नक्षत्र सब, रहें सदा अनुकूल।।
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उम्र हुई है आपकी, पूरे बासठ साल।
लेकिन अब भी मोरनी, जैसी ही है चाल।।
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जितना दाता ने दिया, करो उसे उपभोग।
जब तक है यह जिन्दगी, तब तक रहो निरोग।।
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भरे हुए हैं हृदय में, मेरे मंजुल भाव।
अन्त समय तक भी रहे, सखाभाव-समभाव।।
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साधारण आहार से, सभी लोग हैं पुष्ट।
अपनी चादर में हुए, परिवारी सन्तुष्ट।।
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बेटे भी शालीन हैं, बहुएँ मिलीं कुलीन।
किलकारी की गूँज में, रहते हम तल्लीन।।
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गीत "रास्तों को नापकर बढ़े चलो-बढ़े चलो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंजिलें
बुला रहीं, बढ़े चलो-बढ़े चलो!
है कठिन बहुत डगर, चलना देख-भालकर,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
दलदलों में धँस न जाना, रास्ते सपाट हैं
ज़लज़लों में फँस न जाना, आँधियाँ
विराट हैं,
रेत के समन्दरों को, कुशलता से पार कर,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
मृगमरीचिका में, दूर-दूर तक सलिल नही,
ताप है समीर में, सुखद-सरल अनिल नहीं,
तन भरा है स्वेद से, देह चिपचिपा रही,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
कट गया अधिक सफर, बस जरा सा शेष है,
किन्तु जो बचा हुआ, वही तो कुछ विशेष है,
जोत झिलमिला रही, नाव डगमगा रही,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
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बुधवार, 28 सितंबर 2016
वन्दना के दोहे "भर देना लालित्य" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
नमन आपको शारदे, मन के हरो विकार।
नूतन छन्दों का मुझे, दो अभिनव उपहार।।
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तुक-लय-गति का है नहीं, मुझको कुछ भी ज्ञान।
मेधावी मुझको करो, मैं मूरख नादान।।
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सबसे पहले आपका, करता हूँ मैं ध्यान।
शब्दों को पहनाइए, कुछ निर्मल परिधान।।
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गीत-ग़ज़ल-दोहे लिखूँ, लिखूँ बाल साहित्य।
माता मेरे सृजन में, भर देना लालित्य।।
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लिखने वाली आप हो, मैं हूँ मात्र निमित्त।
पावन करना चित्त बस, नहीं चाहिए वित्त।।
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बैठक में अज्ञान की, पसरी हुई जमात।
विद्वानों को हाँकते, अब धनवान बलात।।
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देवी हो माँ ज्ञान की, ऐसे करो उपाय।
साधक वीणापाणि के, कभी न हों असहाय।।
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जगत गुरू बन जाय फिर, अपना प्यारा देश।।
वीणा की झंकार से, पावन हो परिवेश।।
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मंगलवार, 27 सितंबर 2016
दोहे "निज पुरुखों को याद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
श्रद्धा से ही कीजिए, निज पुरुखों को याद।
श्रद्धा ही तो श्राद्ध की, होती है बुनियाद।।
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आदिकाल से चल रही, जग में जग की रीत।
वर्तमान ही बाद में, होता सदा अतीत।।
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जीवन आता है नहीं, जब जाता है रूठ।
जर्जर सूखे पेड़ को, सब कहते हैं ठूठ।।
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जग में आवागमन का, चलता रहता चक्र।
अन्तरिक्ष में ग्रहों की, गति होती है वक्र।।
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वंशबेल चलती रहे, ऐसा वर दो नाथ।
पितरों का तर्पण करो, भक्ति-भाव के साथ।।
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जिनके पुण्य-प्रताप से, रिद्धि-सिद्धि का
वास।
उनका कभी न कीजिए, जीवन में उपहास।।
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जीवित माता-पिता को, मत देना सन्ताप।
पितृपक्ष में कीजिए, वन्दन-पूजा-जाप।।
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अच्छे कामों को करो, सुधरेगा परलोक।
नेकी के ही कर्म से, फैलेगा आलोक।।
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बुरा कभी मत सोचिए, करना मत दुष्कर्म।
सेवा और सहायता, जीवन के हैं मर्म।।
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सोमवार, 26 सितंबर 2016
दोहे "रहा पाक ललकार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बैरी है ललकारता, प्रतिदिन होकर क्रुद्ध।
हिम्मत है तो कीजिए, आकर उससे युद्ध।।
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बन्दर घुड़की दे रहा, हो करके मग़रूर।
लेकिन शासक देश के, बने हुए मजबूर।।
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गाँधी जी ने कब कहा, हो मिन्नत-फरियाद।
शठ को करवा दीजिए, दूध छठी का याद।।
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पामर करवाता यहाँ, दंगे और फसाद।
करो अन्त नापाक का, दूर करो अवसाद।।
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हाथ जोड़कर तो नहीं, हुआ देश आजाद।
क्रान्तिकारियों ने भरा, जन-गण में उन्माद।।
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आजादी के बाद से, रहा पाक ललकार।
बदले में हम कर रहे, केवल सोच-विचार।।
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आकाओं की भूल से, अब तक हैं बेचैन।
ऐसे करो उपाय अब, रहे चमन में चैन।।
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हठधर्मी से ही हुआ, निर्मित पाकिस्तान।
झेल रहा इस दंश को, अब तक हिन्दुस्तान।।
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बिगड़ा अब भी कुछ नहीं, बन्द करो अध्याय।
सही समय अब आ गया, सोचो ठोस उपाय।।
-- कदम-कदम पर जो सदा, करता है उत्पात। उस बैरी से अब कभी, करना मत कुछ बात।। |
रविवार, 25 सितंबर 2016
ग़ज़ल "हिदायत हमारी है सीमा न लाँघो, मिटा देंगे पल भर में भूगोल सारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अमन का चमन ये वतन है
हमारा।
नही
दानवों का यहाँ है गुजारा।।
खदेड़ा हैं गोरों को हमने यहाँ से, लहू दान करके बगीचा सँवारा। बजें चैन की वंशियाँ मन-सुमन में, नही हमको हिंसा का आलम गवारा। दिया पाक को देश का पाक हिस्सा, अनुज के हकों को नही हमने मारा। शुरू से सहा आज तक सह रहे हैं, छोटा समझ कर दिया है सहारा। दरियादिली बुजदिली मत समझना,
समझदार बन कर समझना इशारा।
हिदायत हमारी है सीमा न लाँघो,
मिटा देंगे
पल भर में भूगोल सारा।
बदलना हमें "रूप आता है ज़ालिम तिरंगा बना देंगे हम चाँद-तारा। |
शनिवार, 24 सितंबर 2016
ग़ज़ल "लोग जब जुट जायेंगे तो काफिला हो जायेगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लोग जब जुट जायेंगे, तो काफिला हो जायेगा
आम देगा तब मज़ा, जब पिलपिला हो जायेगा
पास में आकर कभी, कुछ वार्ता तो कीजिए
बात करने से रफू शिकवा-गिला हो जायेगा
आपसी पहचान से, रिश्ते नये बन जायेंगे
रोज़ मिलने का शुरू, जब सिलसिला हो जायेगा
नेह बाती को मिलेगा, जगमगायेगा दिया
जिस्म में जब आत्मा का, दाखिला हो जायेगा
“रूप” की बुनियाद पर तो, प्यार है टिकता नहीं
अच्छा-भला इन्सान इससे मुब्तिला हो जायेगा
(मुब्तिला=पीडित)
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