भूमिका
जीवन के विविध रंगों में रंगी
धरा का प्रभावशाली चित्रण
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ के गीतों और गजलों का यह संग्रह अपनी रचनाओं की सहज शब्दावली व
मधुर संरचनाओं के कारण विशेषरूप से आकर्षित करता है। अपने नाम ‘धरा के रंग’ को सार्थक करते इस संग्रह में ऐसे रचनाकार के दर्शन होते हैं जो
प्रकृति की आकर्षक काल्पनाओं में उड़ता तो है पर उसके पैर सदा सत्य की मजबूत धरा
पर टिके रहते हैं। संग्रह में जीवन के विविध रंगों को शब्द मिले हैं और विविध
आयामों से इन्हें परखा गया है।
एक
ओर जहाँ वेदना, ईमान, स्वार्थ, बचपन, एकता, मनुजता आदि अमूर्त मानवीय संवेदनाओं पर कवि की
संवेदना बिखरती है तो दूसरी ओर प्राकृतिक उपादानों को रचनाकार ने अपनी रचना का
विषय बनाया है। इसके अतिरिक्त प्रेम के विभिन्न रूपों को भी उनकी रचनाओं में
विस्तार मिला है। वे अपने परिवेश की सामाजिक समस्याओं से भी अछूते नहीं रहे हैं।
कन्याभ्रूण हत्या जैसी ज्वलंत समस्या को उठाते हुए वे लिखते हैं-
बेटों की चाहत में मैया!
क्यों बेटी को मार रही हो?
नारी होकर भी हे मैया!
नारी को दुत्कार रही हो,
माता मुझको भी तो अपना
जन-जीवन पनपाने दो!
माता मुझको भी तो
अपनी दुनिया में आने दो!
वे सहज निश्छल जीवन के प्रति समर्पित हैं तथा आधुनिक समाज के
बनावटी आभिजात्य को बड़ी विनम्रता से खारिज करते हुए भोलेपन की पक्षधरता करते
हुए कहते हैं-
जब भी सुखद-सलोने सपने,
नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।
या फिर-
पागलपन में भोलापन हो!
ऐसा पागलपन अच्छा है!!
समाज में एकता के महत्व पर बात करते हुए वे कहते हैं-
एकता से बढ़ाओ मिलाकर कदम
रास्ते हँसते-हँसते ही कट जायेंगे।
देश के प्रति चिंतित होते हुए वे कहते हैं-
आज मेरे देश को क्या हो गया है?
मखमली परिवेश को क्या हो गया है?
और अति आधुनिकता के प्रति-
उड़ा ले गई पश्चिम वाली,
आँधी सब लज्जा-आभूषण,
इस संग्रह की रचनाएँ न केवल सामाजिक समस्याओं को इंगित करती हैं
बल्कि उनका एक समुचित हल भी प्रस्तुत करती हैं। अधिकतर स्थानों पर कवि ने बेहतर
समाज के निर्माण की गुहार करते हुए आशावादी दृष्टिकोण अपनाया हैं। इस संग्रह की
उनकी रचनाओं को विषयों के आधार पर चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
सामाजिक समस्याओं की कविताएँ,
प्रकृति की कविताएँ,
प्रेम की कविताएँ
और मानवीय संवेदनाओं की कविताएँ ।
ऐसा नहीं है कि हर रचना को किसी न किसी श्रेणी के ऊपर लिखा गया
है बल्कि ये स्वाभाविक रूप से उनकी रचनाओं में उपस्थित हुई हैं। यही कारण है कि
कभी कभी एक ही रचना को एक से अधिक श्रेणियों में रखा जा सकता है। जो प्रकृति
कवियों की सबसे बड़ी प्रेरणा स्रोत है। मयंक जी भी इससे अछूते नहीं रहे हैं।
उन्हें सबसे अधिक वर्षाऋतु लुभाती है और उसमें भी बादल। इसके सुंदर चित्र उनकी
रचनाओं में देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार वे वर्षा के साथ अपने बचपन को याद करते
हुए कहते हैं-
बादल जब जल को बरसाता,
गलियों में पानी भर जाता,
गीला सा हो जाता आँगन।
एक और रचना में वे वर्षा को इस प्रकार याद करते हैं-
बारिश का सन्देशा लाये!!
नभ में काले बादल छाये!
जल से भरा धरा का कोना,
हरी घास का बिछा बिछौना,
खुश होकर मेंढक टर्राए!
नभ में काले बादल छाये!
उन्हें पेड़ों से गहरा लगाव है और आम, नीम, जामुन आदि पेड़ों के नाम सहजता से उनकी रचनाओं में आते हैं।
अमलतास पर उनकी एक बड़ी लुभावनी रचना इस संग्रह में है जिसमें उन्होंने फूलों के
गुच्छे को झूमर की उपमा दी है-
अमलतास के झूमर की, आभा-शोभा न्यारी है।
मनमोहक मुस्कान तुम्हारी, सबको लगती प्यारी है।।
मयंक जी की रचनाएँ प्रेम के आदर्शवादी स्वरूप की छटा प्रस्तुत
करती हैं। वे अपनेपन के लिये प्रेम को रोपना आवश्यक समझते हैं। प्रेम के बिना न
फूल खिलते हैं, न हवा में महक होती है, न घर होता है और न सृजन। प्रेम के बिना अदावत, बगावत, शिकवा, शिकायत कुछ भी नहीं होता। विरह के गीत भी तो
प्रेम के कारण ही जन्म लेते हैं। प्रेम को जग का आधरभूत तत्व मानते हुए वे कहते
हैं-
अगर दिलदार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!
न होती सृष्टि की रचना,
न होता धर्म का पालन।
न होती अर्चना पूजा,
न होता लाड़ और लालन।
अगर परिवार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!
उनकी रचनाओं में वर्णित प्रेम ऐसा अमृत है जिसके बरसने से ऋतुएँ
आती-जाती हैं, ठूँठ हरे हो जाते हैं और देश के लिये वीर अपना
शीश चढ़ाकर अमर हो जाते हैं। प्रेम रस में डूबकर तो सभी अभिभूत हो जाते हैं-
तुमने अमृत बरसाया तो,
मैं कितना अभिभूत हो गया!
कहीं यह प्रेम चंदा-चकोरी है तो कहीं सागर का मोती। बड़ी
तल्लीनता से कवि कहता है-
तुम मनको पढ़कर देखो तो!
कुछ आगे बढ़कर देखो तो!!
प्रेम की आवश्यकता और व्यग्रता उनकी रचना ‘प्यार तुम्हारा’ में देखने को मिलती है-
कंकड़ को भगवान मान लूँ,
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा!
काँटों को वरदान मान लूँ,
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा!
या फिर-
आप इक बार ठोकर से छू लो हमें,
हम कमल हैं चरण-रज से खिल जायेगें!
मयंक जी की रचनाओं में ईमान, गरीबी, सद्भावना, चैन, आराम, बचपन का भोलापन आदि मानवीय संबंधों की बहुआयामी पड़ताल मिलती है।
जीवन के चक्र के प्रति उनकी अद्भुत दृष्टि मिलती है जिसे वे ‘चक्र समझ नहीं पाया’ में सहजता से समझा देते हैं। वे धैर्य को जीवन का बहुमूल्य तत्व
मानते हुए हर किसी से, हर समय सुविधा की अपेक्षा करने को गलत ठहराते
हैं और क्रूरता, असंवेदनशीलता, अशांति आदि के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए
कहते हैं-
शान्ति का कपोत बाज का शिकार हो गया!
और शुभता की मंगलकामना करते हुए-
आँसू हैं अनमोल,
इन्हें बेकार गँवाना ठीक नही!
हैं इनका कुछ मोल,
इन्हें बे-वक्त बहाना ठीक नही!
दिन प्रतिदिन मुश्किल होते हुए जीवन के प्रति वे कहते हैं-
छलक जाते हैं अब आँसू, गजल को गुनगुनाने में।
नहीं है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
दुनिया से गुम होते ईमान के लिये उनके शब्द कुछ इस प्रकार आकार
लेते है-
ईमान ढूँढने निकला हूँ, मैं मक्कारों की झोली में।
बलवान ढूँढने निंकला हूँ, मैं मुर्दारों की टोली में।
ताल ठोंकता काल घूमता, बस्ती और चैराहों पर,
कुछ प्राण ढूँढने निकला हूँ, मैं गद्दारों की गोली में।
सुंदर सजीव चित्रात्मक भाषा वाली ये रचनाएँ संवेदनशीलता के मर्म
में डुबोकर लिखी गई हैं। आशा है कहीं न कहीं ये हर पाठक को गहराई से छुएँगी।
इस सुंदर संग्रह के लिये डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
विजयदशमी 2011
-पूर्णिमा वर्मन
पी.ओ. बाक्स 25450,
शारजाह, संयुक्त अरब इमीरात
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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मंगलवार, 20 सितंबर 2016
भूमिका "धरा के रंग" (पूर्णिमा वर्मन)
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बधाई शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली विश्लेषण किया है ।
जवाब देंहटाएंआभार
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-09-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2473 में दी जाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएं