जहाँ अरमान पलते हैं
वहीं पर दीप जलते हैं
जहाँ बरसात होती है
वहीं पत्थर फिसलते हैं
लगी हो आग जब दिल में
तो शोले ही निकलते हैं
कभी सूखे के मौसम में
नहीं दरिया उबलते हैं
शक्ल इन्सान की धर कर,
नगर में नाग छलते हैं
अमन के चमन में आकर
जुबाँ से विष उगलते हैं
सुरीले सुर बजें कैसे
विदेशी साज चलते हैं
“रूप” को मोम के पुतले
घड़ी भर में बदलते हैं
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गुरुवार, 8 सितंबर 2016
ग़ज़ल "“रूप” को मोम के पुतले घड़ी भर में बदलते हैं " (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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