पाठकों से सम्वाद करता दोहा संग्रह
“कदम-कदम पर घास”
डॉ. राकेश सक्सेना (गीतकार) रीडर- हिन्दी विभाग,
जवाहरलाल नेहरू महाविद्यालय, एटा (उ.प्र.)
समर्थ व सिद्धहस्त रचनाकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ की “कदम-कदम पर घास” आरती प्रकाशन, लालकुआँ नैनीताल, (उत्तराखण्ड) द्वारा सद्यः प्रकाशित एक ऐसी कृति है जो दोहा विधा में लिखी गयी है। पचहत्तर विविध विषयों पर दोहाकार ने सात सौ इक्कीस दोहों को इसमें संग्रहीत किया है।
10 अप्रैल, 2016 को साहित्य शारदा मंच, खटीमा द्वारा आयोजित समारोह के अवसर पर प्रकाशिका श्रीमती आशा शैली की अध्यक्षता में देश के 35 शीर्षस्थ दोहाकारों व स्थानीय साहित्यकारों की उपस्थिति में इस कृति का लोकार्पण हुआ। सौभाग्य से विशिष्ट अतिथि के रूप में मेरी भी हिस्सेदारी रही। यदा-कदा शास्त्री जी के दोहे फेसबुक पर पढ़ता रहता था किन्तु “कदम-कदम पर घास” कृति के हाथ में आने पर जब अध्ययन करने पर ऐसा लगा कि शास्त्री जी के लिए दोहे लिखना बायें हाथ का खेल है। यदि मैं उनको एक कुशल की साधक की संज्ञा दूँ तो मैं समझता हूँ कि यह अतिशयोक्त नहीं होगी। क्योंकि उनका परिचय स्वयं उनके दोहे दे रहे हैं।
भारतीय संस्कृति के अनुरूप “गणेश वन्दना” व “माँ वागेशवरी स्तवन” से कृति का शुभारम्भ होता है और छब्बीसवें दोहे पर कृति के नामकरण सार्थकता की सिद्धि।
“मान और अपमान का, नहीं मुखोटा पास।
चरणों में रहती सदा, कदम-कदम पर घास।।“
दोहा साहित्य की प्राचीन विधा है। चाहे सूपी सन्त हों, चाहे गोस्वामी तुलसी दास, कबीरदास या महाकवि बिहारी लाल हों, सभी ने अपनी भावाभियक्ति के लिए दोहों का आश्रय लिया। इसीलिए ये कविगण आमजनों के कण्ठहार बन गये।इस षय की प्रासंगिकता व महत्व को दोहाकार ने भी अनुभव किया।
“दोहों के व्यामोह में गया ग़ज़ल मैं भूल।
अन्य विधाओं का अभी, समय नहीं अनकूल।।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल हमारे जीवन का आधार है, जिसका आज बाजारीकरण हो रहा है। भूखे को रोटी और प्यासे को पानी देने की हमारी प्राचीन परम्परा रही है। हमारे यहाँ लोग प्याऊ चलवाते थे, कुएँ व तालाब खुदवाते थे किन्तु आज बोतलबन्द पानी की बिक्री हो रही है। दोहाकारमनना है कि इस अमोल सम्पदा का भण्डार सीमित है अतः आवश्यकतानुसार इसका सार्थक उपयोग करें-
“पानी का संसार में, सीमित है भण्डार।
व्यर्थ न नीर बहाइए, जल जीवन आधार।।“
माँ-बाप हमारे जीवन में पूर्व जन्म का संचय होते हैं। माँ यदि गंगा है तो पिता हिमालय है। वे लोग बहुत ही सौभाग्यसाली होते हैं जिनके मैँ-बाप साथ होते हैं। एक वर्ष में ही कवि के सिर से माता-पिता का साया हट गया। दोहों में उनकी वेदना दृष्टव्य है-
“एक साल बीता नहीं, पिता गये परलोक।
अब माता भी चल बसी, छोड़ मृत्यु का लोक।।
दोनों के आशीष से, वंचित हूँ मैं आज।
तरस रहा हूँ आपकी, सुनने को आवाज।।“
पर्यावरण के प्रति रचनाकार जागरूक दिखाई देता है। विचारणीय तथ्य यह है कि एक व्यक्ति एक दिन में जितना ऑक्सीजन लेता है जितने में 3 ऑक्सीजन सिलेण्डर भरे जा सकते हैं। एक ऑक्सीजन सिलेण्डर की कीमत लगभग 700 रुपये है। इस तरह हम देख सकते हैं कि एक व्यक्ति एक दिन में 2100 रुपये की ऑक्सीजन लेता है जो कि पेड़-पौधों द्वारा हमें निःशुल्क प्राप्त होती है और हम इन्हीं पेड़-पौधों को समाप्त करते जा रहे हैं। रचनाकार की दृष्टि में धरती के इस सन्ताप को हरित क्रान्ति से ही मिटाया जा सकता है-
“प्राणवायु देते सदा, पीपल, वट औ’ नीम।
दुनियाभर में हैं यही, सबसे बड़े हकीम।।
हरित क्रान्ति से मिटेगा, धरती का सन्ताप।
पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप।।“
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-29)
हमारा देश पर्व और परम्पराओं का देश है। इनसे हमारे समाज की बनावट और बुनावट सुदृढ़ होती है, शनैः - शनैः इन परम्पराओं का लोप हो रहा है। रचनाकार होली, नवसम्वत्सर, लोहड़ी, भइयादूज, अन्नकूट, अहोई अष्टमी, धनतेरस, करवाचौथ, शरदपूर्णिमा, विजयादशमी आदि पर्वों के महत्व को रेखांकित करते हुए बताता है कि यदि जीवन में उत्सवधर्मिता नहीं होगी तोहम जड़ हो जायेंगे, यथा-
“पर्व लोहड़ी का हमें, देता है सन्देश।
मानवता अपनाइए, सुधरेगा परिवेश।।“
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-114)
शरदपूर्णिमा आ गयी, लेकर यह सन्देश।
तन-मन, आँगन-गेह का, करो स्वच्छ परिवेश।।
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-67)
सारा उपवन महकता, चहक रहा मधुमास।
होली का होने लगा, जन-जन को आभास।।
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-113)
करवा पूजन की कथा, माता रही सुनाय।
वंशबेल को देखकर, फूली नहीं समाय।।
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-99)
शास्त्री जी को अपने लोकतन्त्र में गहन आस्था है किन्तु आज राजनीतिज्ञों ने अपने आचरण की अपवित्रता से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थों को समाप्त कर दिया है। नेता शब्द जो कभी शौर्य और दिशाबोध एवं पवित्रता का प्रतीक था, आज घृणा, तिरस्कार और गालियों का पर्याय हो गया है। झूठे वायदे करके ये जनता को लुभाते हैं, वोट प्राप्त करते हैं। जनता व देश की तस्वीर बदलने से इनका कोई सरोकार नहीं है-
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि दोहाकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री‘मयंक’ की “कदम-कदम पर घास” एक उपयोगी दोहा कृति है। जिसका प्रत्येक दोहा पाठकों से सम्वाद करता है तता दोहाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करता है। सास्त्री जी क्या हैं? पाठकों के सामने कुछ छिपता नहीं है। दोहाकार जैसे हैं ठीक वैसे ही इनके दोहे हैं, न उनसे ज्यादा और न उनसे कम। वे यदि एक ओर देश और परिवेश के हर हिस्से को अपनी कलम से गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं तो दूसरी ओर फेसबुक पर दोहा छन्द समूह के माध्यम से नये रचनाकारों की रचनाओं को परिष्कृत करके उन्हें समृद्ध भी बना रहे हैं। जब भी दोहा विधा की बात होगी तब-तब आपके योगदान का अनिवार्यरूप से उल्लेख होगा।
दावे करते हैं सभी, बदलेंगे तस्वीर।
अपनी रोटी सेंकते, राजा और फकीर।।
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-37)
दाँव-पेंच के खेल को, समझ गया जनतन्त्र।
लोकतन्त्र के खेल में, काम कर रहा यन्त्र।।
(कदम-कदम पर घास, पृष्ठ-126)
अनवरत आपकी लेखनी गतिमान रहे, मेधा व ऊर्जा रचनात्मक कार्यों में लीन रहे।
शुभ मंगल कामनाएँ !!
दिनांकः 15 अप्रैल, 2016
डॉ. राकेश सक्सेना (गीतकार)
“सृजन”
68, शान्ति नगर,
एटा (उ.प्र.) 207001
|
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शुक्रवार, 2 सितंबर 2016
"शैल-सूत्र" त्रयमासिक साहित्यिक पत्रिका के अप्रैल-जून अंक में “कदम-कदम पर घास” की समीक्षा
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