अपनी माटी गीत सुनाती, गौरव और गुमान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
खेतों में उगता है सोना, इधर-उधर क्यों झाँक रहे?
भिक्षुक बनकर हाथ पसारे, अम्बर को क्यों ताँक रहे?
आज जरूरत धरती माँ को, बेटों के श्रमदान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
हरियाली के चन्दन वन में, कंकरीट के जंगल क्यों?
मानवता के मैदानों में, दावनता के दंगल क्यों?
कहाँ खो गयी साड़ी-धोती, भारत के परिधान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
टोपी-पगड़ी, चोटी-बिन्दी, हमने अब बिसराई क्यों?
अपने घर में अपनी हिन्दी, सहमी सी सकुचाई क्यों?
कहाँ गयी पहचान हमारे, पुरखों के अभिमान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
कहाँ गया ईमान हमारा, कहाँ गया भाई-चारा?
कट्टरपन्थी में होता क्यों, मानवता का बँटवारा?
मूरत लुप्त हो गयी अब तो, अपने विमल-वितान की।।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
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गुरुवार, 5 जनवरी 2017
गीत "अपनी माटी गीत सुनाती" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत खूब मेरी एक मदद करोगे
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंआपकी रचना बहुत सुन्दर है। हम चाहते हैं की आपकी इस पोस्ट को ओर भी लोग पढे । इसलिए आपकी पोस्ट को "पाँच लिंको का आनंद पर लिंक कर रहे है आप भी कल शुक्रवार 6 जनवरी 2017 को ब्लाग पर जरूर पधारे ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएं