हमने बनाए जिन्दगी में कुछ उसूल हैं। गर प्यार से मिले तो जहर भी कुबूल है।। हमने तो पड़ोसी को अभय-दान दिया है, दुश्मन को दोस्त जैसा सदा मान दिया है, बस हमसे बार-बार हुई ये ही भूल है। गर प्यार से मिले तो जहर भी कुबूल है।। साबुन से धोया हमने गधों को हजार बार, लेकिन कभी न आया उनमें गाय सा निखार, क्यों पथ में बार-बार बिछाते वो शूल हैं। गर प्यार से मिले तो जहर भी कुबूल है।। हम जोर-जुल्म के कभी आगे न झुकेंगे, जल-जलों तूफान से डर कर न रुकेंगे, खारों को हमने मान लिया सिर्फ फूल है। गर प्यार से मिले तो जहर भी कुबूल है।। |
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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सोमवार, 31 अगस्त 2009
‘‘खारों को हमने मान लिया सिर्फ फूल है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 29 अगस्त 2009
’’अगर हो सके तो इशारे समझना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
इशारों-इशारों में हम कह रहे हैं,
अगर हो सके तो इशारे समझना। मेरे भाव अल्फाज बन बह रहे हैं, नजाकत समझना नजारे समझना। अगर हो सके तो इशारे समझना।। शजर काट नंगा बदन कर रहे हैं, मझधार को मत किनारे समझना। अगर हो सके तो इशारे समझना।। समाया दिमागों में दूषित प्रदूषण, दरिया को गन्दे ही धारे समझना। अगर हो सके तो इशारे समझना।। कहर बो रहे हैं, जहर खा रहे हैं, बशर सारे किस्मत के मारे समझना अगर हो सके तो इशारे समझना।। जो तूती की आवाज को मन्द कर दें, उन्हें ढोल-ताशे , नगारे समझना अगर हो सके तो इशारे समझना।। जिसे पाक माना था नापाक निकला, ये माथे का काजल हमारे समझना। अगर हो सके तो इशारे समझना।। |
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’’बुज-दिली के मत निशान दो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जिन्दा हो गर, तो जिन्दादिली का प्रमाण दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। स्वाधीनता का पाठ पढ़ाया है राम ने, क्यों गिड़िगिड़ा रहे हो शत्रुओं के सामने, अपमान करने वालों को हरगिज न मान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। तन्द्रा में क्यों पड़े हो, हिन्द के निवासियों, सहने का वक्त अब नही, भारत के वासियों, सौदागरों की बात पर बिल्कुल न ध्यान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। कश्मीर का भू-भाग दुश्मनों से छीन लो, कैलाश-मानसर को भी अपने अधीन लो, चीन-पाक को नही रज-कण का दान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। |
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
‘‘आज जरूरत है प्रताप जैसे तेवर अपनाने की’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 27 अगस्त 2009
‘‘उल्लू और गधा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बुधवार, 26 अगस्त 2009
‘‘हम तो नेता हैं फकत जूतें ही खाना जानते हैं’’ (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
‘‘जलवे ही जलवे मेरे देश में हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
ठलवे ही ठलवे मेरे देश में हैं। जलवे ही जलवे मेरे देश में हैं।। भवन खोखला कर दिया है वतन का, अमन-चैन छीना है अपने चमन का, बलवे ही बलवे मेरे देश में हैं। जलवे ही जलवे मेरे देश में हैं।। नेताओं ने चाट ली सब मलाई, बुराई के डर से छिपी है भलाई, हलवे ही हलवे मेरे देश में हैं। जलवे ही जलवे मेरे देश में हैं।। चारों तरफ है अहिंसा का शोषण, घर-घर में पैदा हुए हैं विभीषण, मलवे ही मलवे मेरे देश में हैं। जलवे ही जलवे मेरे देश में हैं।। |
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सोमवार, 24 अगस्त 2009
‘‘मन में फिर आनन्द समाया’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
तुम आये तो जीवन आया, मन में फिर आनन्द समाया। गीत रचाया हमने पूरा, लेकिन लगता हमें अधूरा, तुम आये तो सावन आया, शब्दों में फिर बन्द समाया। मन में फिर आनन्द समाया।। केशर-क्यारी महक रही थी, श्वाँस हमारी बहक रही थी, आकर तुमने गले लगाया, सुन्दर सुर में छन्द सुनाया, मन में फिर आनन्द समाया। |
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रविवार, 23 अगस्त 2009
‘‘बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
वक्त सही हो तो सारा, संसार सुहाना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। यदि अपने घर व्यंजन हैं, तो बाहर घी की थाली है, भिक्षा भी मिलनी मुश्किल, यदि अपनी झोली खाली है, गूढ़ वचन भी निर्धन का, जग को बचकाना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। फूटी किस्मत हो तो, गम की भीड़ नजर आती है, कालीनों को बोरों की, कब पीड़ नजर आती है, कलियों को खिलते फूलों का रूप पुराना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। धूप-छाँव जैसा, अच्छा और बुरा हाल आता है, बारह मास गुजर जाने पर, नया साल आता है, खुशियाँ पा जाने पर ही अच्छा मुस्काना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। |
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शनिवार, 22 अगस्त 2009
‘‘गुब्बारे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बच्चों को लगते जो प्यारे। वो कहलाते हैं गुब्बारे।। गलियों, बाजारों, ठेलों में। गुब्बारे बिकते मेलों में।। काले, लाल, बैंगनी, पीले। कुछ हैं हरे, बसन्ती, नीले।। पापा थैली भर कर लाते। जन्म-दिवस पर इन्हें सजाते।। गलियों, बाजारों, ठेलों में। गुब्बारे बिकते मेलों में।। फूँक मार कर इन्हें फुलाओ। हाथों में ले इन्हें झुलाओ।। सजे हुए हैं कुछ दुकान में। कुछ उड़ते हैं आसमान में।। मोहक छवि लगती है प्यारी। गुब्बारों की महिमा न्यारी।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
‘क्षणिका’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कल तक हनुमान कहाता था, संकट-मोचन कहलाता था, अब रावण मुझे बनाया है, तो युद्ध करो! मैं भी देखता हूँ, बिना हनुमान के, श्री राम की जय कौन बोलेगा? विदेशों में आतंकियों से समझौता करने कौन जायेगा? |
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गुरुवार, 20 अगस्त 2009
‘‘काँटों को फूल मान, चमन में सजा लिया’’ (डॉ रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बुधवार, 19 अगस्त 2009
‘‘पड़ोसी से पड़ोसी का, हमें रिश्ता निभाना है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जमाना है तो हम-तुम हैं, जमाना तो जमाना है। यहीं पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। कहीं रातें उजाली हैं, दिवस में भी अन्धेरा है, खुले जब आँख तो समझो, तभी आया सवेरा है, परिन्दे को बहुत प्यारा, उसी का आशियाना है। यहीं पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। अगर है प्यार दोजख़ में, तो जन्नत की जरूरत क्या? बिना माँगे मिले जब सब, तो मन्नत की जरूरत क्या? मुहब्बत की नई राहों को, दुनिया को दिखाना है। यही पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। जो अपने दिल की यादों को बगीचों में सजाते हैं, नियम से पेड़-पौधों को जो उपवन में उगाते है, खुशी से हर कली को फूल बनकर मुस्कराना है। यहीं पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। कुटिलता की कहानी को हमें कहना नही आता, हमें अन्याय-अत्याचार को सहना नही आता, यही सन्देश दुनिया भर को गा करके सुनाना है। यहीं पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। जिन्हें अपना फटा दामन कभी सीना नही आया, सलीके से सुखी होकर जिन्हें जीना नही आया, उन्हें सदभावना का मन्त्र हमको ही सिखाना है। यहीं पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। जिन्हें बढ़ने की आदत है, उन्हे रुकना नही आता, जिन्हें लड़ने की आदत है, उन्हें झुकना नही आता, पड़ोसी से पड़ोसी का, हमें रिश्ता निभाना है। यहीं पर हर बशर को, भाग्य अपना आजमाना है।। |
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मंगलवार, 18 अगस्त 2009
‘‘घर में पानी, बाहर पानी’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
खटीमा में बाढ़ के ताज़ा हालात के लिए लिंक http://uchcharandangal.blogspot.com/2009/08/blog-post_17.html जब सूखे थे खेत-बाग-वन, तब रूठी थी बरखा-रानी। अब बरसी तो इतनी बरसी, घर में पानी, बाहर पानी।। बारिश से सबके मन ऊबे, धानों के बिरुए सब डूबे, अब तो थम जाओ महारानी। घर में पानी, बाहर पानी।। दूकानों के द्वार बन्द हैं, शिक्षा के आगार बन्द है, राहें लगती हैं अनजानी। घर में पानी, बाहर पानी।। गैस बिना चूल्हा है सूना, दूध बिना रोता है मुन्ना, भूखी हैं दादी और नानी। घर में पानी, बाहर पानी।। बाढ़ हो गयी है दुखदायी, नगर-गाँव में मची तबाही, वर्षा क्या तुमने है ठानी। घर में पानी, बाहर पानी।। |
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सोमवार, 17 अगस्त 2009
‘‘बेटियाँ पल रही कैदियों की तरह’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘इस कदर बढ़ गई, व्यक्ति की व्यस्तता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज का है पता और न कल का पता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। हमने दुर्गम डगर पर बढ़ाये कदम, हँसते-हँसते मिले, हर मुसीबत से हम, हमको इन्सानियत के न छल का पता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। हमने तूफान में रख दिया है दिया, आँसुओं को सुधा सा समझकर पिया, भव के सागर के कोई न तल का पता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। हम तो जिससे मिले, खोलकर दिल मिले, किन्तु वो जब मिले, फासलों से मिले, इस कदर बढ़ गई, व्यक्ति की व्यस्तता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। |
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शनिवार, 15 अगस्त 2009
‘‘मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
‘‘दुनिया में दहशत फैलाना, फितरत है शैतानों की’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गल्ती करना और पछताना, आदत है इन्सानों की। गल्ती पर गल्ती करना ही, आदत है हैवानों की।। दर्द पराया अपने दिल में, जिस मानव ने पाला है, उसके जीने का तो बिल्कुल ही अन्दाज निराला है, शम्मा पर जल कर मर जाना, चाहत है परवानों की। गल्ती पर गल्ती करना ही, आदत है हैवानों की।। मित्र-पड़ोसी के अन्तर में, जब तक पलती दूरी हैं, तब तक होगी मैत्री भावना की कल्पना अधूरी हैं, बेदिल वालों की दुनिया में, दुर्गत है अरमानों की। गल्ती पर गल्ती करना ही, आदत है हैवानों की।। खाया नमक देश का लेकिन नमक हलाली भूल गया, अन्धा होकर दहशतगर्दों के हाथों में झूल गया, दुनिया में दहशत फैलाना, फितरत है शैतानों की। गल्ती पर गल्ती करना ही, आदत है हैवानों की।। |
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बुधवार, 12 अगस्त 2009
‘‘तो मिलने श्याम आयेंगे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
स्वयं मिट जायेगी दूरी, अगर है कामना सच्ची। मिलेगी प्यार की नेमत, अगर है भावना अच्छी।। जलेंगे दीप खुशियों के, अगर हो स्नेह की बाती। बनेंगे गैर भी अपने, अगर हो नेह की पाती।। इरादे नेक होंगे तो, समन्दर थाह दे देंगे। अगर मजबूत जज्बा है, सिकन्दर राह दे देंगे।। अगर तुलसी सी भक्ति है, तो मिलने राम आयेंगे। जो है मीरा सी आसक्ति, तो मिलने श्याम आयेंगे।। |
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मंगलवार, 11 अगस्त 2009
‘‘वो तो बेदिल रहे, हम तो बा-दिल हुए’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मेरी मय्यत में ही वो तो शामिल हुए।।
उनकी राहों से काँटे ही चुनते रहे, जान बिस्मिल हुई, फूल कातिल हुए। मेरी मय्यत में ही वो तो शामिल हुए।।
जिनके कारण जगे, वो मगर सो गये, हमने उनको पुकारा, वो गाफिल हुए। मेरी मय्यत में ही वो तो शामिल हुए।।
मन फड़कता रहा, आस पलती रही, हम तो अव्वल रहे वो ही बातिल हुए। मेरी मय्यत में ही वो तो शामिल हुए।।
अब तो आने से कोई नही फायदा, वो तो बेदिल रहे, हम तो बा-दिल हुए। मेरी मय्यत में ही वो तो शामिल हुए।। |
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सोमवार, 10 अगस्त 2009
‘‘बन्दी है आजादी अपनी, छल के कारागारों में’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मैला-पंक समाया है, निर्मल नदियों की धारों में।। नीचे से लेकर ऊपर तक, भ्रष्ट-आवरण चढ़ा हुआ, झूठे, बे-ईमानों से है, सत्य-आचरण डरा हुआ, दाल और चीनी भरे पड़े हैं, तहखानों आगारों में। मैला-पंक समाया है, निर्मल नदियों की धारों में।। नेताओं की चीनी मिल हैं, नेता ही व्यापारी हैं, खेतीहर-मजदूरों का, लुटना उनकी लाचारी हैं, डाकू, चोर, लुटेरे बैठे, संसद और सरकारों में। मैला-पंक समाया है, निर्मल नदियों की धारों में।। आजादी पूँजीपतियों को, आजादी सामन्तवाद को, आजादी ऊँची-खटियों को, आजादी आतंकवाद को, निर्धन नारों में बिकता है, गली और बाजारों में। मैला-पंक समाया है, निर्मल नदियों की धारों में।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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‘‘मैंने मदद को पुकारा नही’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मेरे आँगन में उतरे सितारे बहुत, किन्तु मैंने मदद को पुकारा नही।
मैंने हाँ भी न की और नकारा नही।
मैंने माँगा किसी से सहारा नही।
जो हमारा था वो भी हमारा नही।
हमने तन और मन को सँवारा नही।
इसलिए उसने सोचा विचारा नही।
बून्द छोटी सी है जल की धारा नही। |
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रविवार, 9 अगस्त 2009
राजकिशोर राज की कलम से-प्रस्तुति डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
अच्छा नहीं होता। शराफ़त का सियासत में, ’दखल’ अच्छा नहीं होता। कि गंगा में खिले जैसे, ’कमल’ अच्छा नहीं होता। नकल से पास होते हैं, अधिकतर आज के बच्चे, कोई मेहनत करे फिर हो, ’सफल’ अच्छा नहीं होता। लफंगा जब सड़क पर, छेड़ता हो एक अबला को, पलट लो उस जगह कोई, ’सबल’ अच्छा नहीं होता। पुलिस पीटे शरीफों को, ये कसरत रोज की उनकी, पुलिस का यूँ बनाना क्या, ’मसल’ अच्छा नहीं होता। जो मांगे घूस में बाबू, तो उसका हाफ झट देदो, कहो उससे कि हक ये है, ’डबल’ अच्छा नहीं होता। बिना शादी कोई जोड़ा, मिले कॉन्ट्रैक्ट पर रहता, गलत क्या क्युँ करे शादी, ’अमल’ अच्छा नहीं होता। मियाँ-बीबी जो पकड़े पार्क में, अदना पुलिस वाला, सही है पार्क में मैरिड, ’कपल’ अच्छा नहीं होता। गरीबों को बनाया रोज, शोषण के लिए रब ने, कि शोषण पर करे कोई, ’टसल’ अच्छा नहीं होता। पोएट्री हो चुकी बेतुक, कहो तुम ’राज’ बेतुक ही, लगाना तुक मिलाने में, ’अकल’ अच्छा नहीं होता। |
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शनिवार, 8 अगस्त 2009
‘‘हूर कब लंगूर को पहचानती है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हूर कब लंगूर को पहचानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। गीत और मल्हार के स्वर गौण हैं, गजल और कव्वालियाँ भी मौन हैं, नयी पीढ़ी पॉप को ही मानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। ढंग जीने का हुआ बिल्कुल निराला, दोस्त देता जहर का पल-पल निवाला, वैर शाखाएँ शजर से ठानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। कल्पनाओं को नही आकार मिलता, ढूँढने से भी नही बेगार मिलता, खाक दर-दर की जवानी छानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। |
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शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
कदर सूअर की.......(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
कदर सूअर की सूअर जानता है।। |
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‘‘मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज फिर टिपियाने में गीत बन गया। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
मन में सोये सुमन खिलखिलाने लगे, सुख सँवरता रहा, दर्द जलता रहा। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
जब दिखाई दिये चटपटा सा लगा, ताप बढ़ता रहा, तन सुलगता रहा। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
शैल-खिखरों से गंगा निकलती सदा, स्वप्न मेरा हकीकत में ढलता रहा। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।। |
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गुरुवार, 6 अगस्त 2009
’’सूअर कौन?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गलियों सड़कों और नालियों को साफ करता हूँ, गन्दगी को चट कर जाता हूँ, और सूअर कहलाता हूँ, परन्तु आप तो मुझको ही चट कर जाते हो, जी हाँ! मैं सूअर हूँ, और आप..................? |
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बुधवार, 5 अगस्त 2009
"ताऊ बहुत महान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 4 अगस्त 2009
‘‘हाइकू’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सोमवार, 3 अगस्त 2009
‘‘खाज में कोढ़ के दाखले मत करो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दूरिया कम करो फासले मत करो। खाज में कोढ़ के दाखले मत करो।। दौलतें बढ़ गईं दिल हुए तंग है, कालिमा चढ़ गई, नूर बे-रंग है, आग के ढेर पर घोंसले मत धरो। खाज में कोढ़ के दाखले मत करो।। मन में बैठे कुटिल पाप को कम करो, बनके बादल सघन ताप को कम करो, फूट और लूट के हौंसले मत करो। खाज में कोढ़ के दाखले मत करो।। वो ही दैरो-हरम में समाया हुआ, नूर दुनिया में उसका ही छाया हुआ, दीन-ईमान के चोंचले मत करो। खाज में कोढ़ के दाखले मत करो।। भाई-चारा निभाना सदा प्यार से, रोग हरना सदा श्रेष्ठ उपचार से, मखमली ख्वाब हैं खोखले मत करो। खाज में कोढ़ के दाखले मत करो।। |
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‘‘देवदत्त प्रसून की कलम से’’ प्रस्तुति-डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
छल की गागर छलकी रे। छल की गागर छलकी रे। |
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रविवार, 2 अगस्त 2009
‘‘जिसको चाहो गले से लगा लीजिए‘‘ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हार भी है यहीं, जीत भी है यहीं, जिसको चाहो उसी का मजा लीजिए। शत्रु भी हैं यहीं, मीत भी है यही, जिसको चाहो गले से लगा लीजिए।। दिल में बहने लगें भाव जब आपके, गीत और छन्द को तब सजा लीजिए। जिसको चाहो गले से लगा लीजिए।। दोस्ती में बहुत बन्दिशें है भरी, दुश्मनी एक पल में बजा लीजिए। जिसको चाहो गले से लगा लीजिए।। नेक कामों का फल देर से आयेगा, देखना है मजा तो दगा कीजिए। जिसको चाहो गले से लगा लीजिए।। |
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शनिवार, 1 अगस्त 2009
‘‘जो घमण्डी हैं उनका ही होता पतन’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘राज किशोर सक्सेना ‘राज’ की कलम सेः प्रस्तुति-डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
शब्दों के कुशल चितेरे थे। हर मनोभावों के शब्द-चित्र, गढ़-गढ़ कर तीव्र उकेरे थे। जो लिखा वही इतिहास बना, जो कहा वही प्रतिमान हुआ। हर शब्द कलम से जो निकला, नव-सूरज सा गतिमान हुआ। जो कथा कही वह अमर हुई, एक मापदण्ड का रूप बनी। हर उपन्यास जनप्रिय बना, गाथा जन का प्रतिरूप बनी। जो लिखा गजब का लेखन था, हर पात्र बोलता लगता था। वह रोता था, सब रोते थे, सब हँसते थे जब हँसता था। है अतुल तुम्हारा योगदान, भाषा का रूप सँवारा है। हे गद्य विधा के प्रेमचन्द्र! तुमको शत् नमन हमारा है।। |
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