छल की गागर छलकी रे। छल की गागर छलकी रे। |
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सोमवार, 3 अगस्त 2009
‘‘देवदत्त प्रसून की कलम से’’ प्रस्तुति-डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
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Bahut acchi rachna.. badhai...!
जवाब देंहटाएं‘रात’ रोशनी निगल चुकी है,
जवाब देंहटाएंलिए कालिमा निकल चुकी है,
इन जलते-बुझते तारों की,
चमक दिखाती झलकी रे।
छल की गागर छलकी रे।।
bahut achchhe bhav lage .badhai!
आप ने भी मोती इकठ्ठे कर रखे हैं>
जवाब देंहटाएंwaah,ataynt sundar
जवाब देंहटाएंkya bhavpurn kavita hai..
badhiya...badhayi ho!!!
Saarthak rachna hai. Padhwane ke liye Aabhaar.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }</a
बहुत सुंदर रचना. आभार आपका.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत अच्छी रचना है
जवाब देंहटाएं---
1. चाँद, बादल और शाम
2. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
बहुत सुन्दर रचना है बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंइस बेहतरीन रचना के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंitni umda rachna padhwane ke liye shukriya.
जवाब देंहटाएंaap ka to mein fan hoo
जवाब देंहटाएं-aman agarwal "marwari" khatima