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सोमवार, 17 अगस्त 2009
‘‘बेटियाँ पल रही कैदियों की तरह’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत हद तक सही है .............
जवाब देंहटाएंसत्य कहा आपने...
जवाब देंहटाएंmayank ji.
जवाब देंहटाएंaapki kavita ne to bhav vibhor kar diya hai.
mujhe bhi apani betiyon ki chinta satane lagi hai.
बहुत ही सही स्थिति उकेरी है रचना में आभार
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण रचना |
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन एवं भावुक रचना.....
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही बात फ़रमाया है आपने! बहुत ही भावपूर्ण रचना!
जवाब देंहटाएंलाडलों के लिए पूरे घर-बार हैं,
जवाब देंहटाएंलाडली के लिए संकुचित द्वार हैं,
मयंक जी हमेशा की तरह एक सुन्दर और भावम्य कविता के लिये बधाई
बहुत सही कहा शास्त्री जी, शहरो में भले ही स्थिति में थोडा सुधार जरूर है, मगर गाँवों में कमोवेश यही स्थिति है और मैं इसके लिए माँ को ज्यादा जिम्मेदार ठहराता हूँ, क्योंकि पिता का फिर भी बेटी से अधिक लगाव होता है !
जवाब देंहटाएंbahut sahi baat. tamaam badlaabon ke baad bhi betiyon ki sthiti dayneey hi hai.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन.बधाई!!
जवाब देंहटाएंसमाज के एक बहुत बड़े वर्ग का कहानी कहती हुई
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंbehtreen........shandar............satya ko darshati rachna.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना..
जवाब देंहटाएंजिन्दगी चल रही चिमनियों की तरह।
जवाब देंहटाएंबेटियाँ पल रही कैदियों की तरह।।
वाह वाह....शास्त्री जी!
दिल को हिला देने वाली कविता लिखी है आपने।
MANYAVAR.
जवाब देंहटाएंIS SUNDER KAVITA KE LIYE,
BADHAAYEE.
nice poem.
जवाब देंहटाएंcongratulation.
sir ji.
जवाब देंहटाएंkisi bhi vishay par aap jhat-pat
kavita likh dete hain.
aapki lekhani ko naman karta hoon.
मयंक जी।
जवाब देंहटाएंबेटियों का बिल्कुल सही चित्रण किया है।
बधाई।
बिल्कुल सही लिखा है सर जी!
जवाब देंहटाएंभारत में बेटियों की यही हालत है।
बधाई।