परिवार ढूँढता हूँ और प्यार ढूँढता हूँ। गुल-बुलबुलों का सुन्दर संसार ढूँढता हूँ।। कल नींद में जो देखा, मैंने हसीन सपना, जीवन में वो महकता घर-बार ढूँढता हूँ। स्वाधीनता मिली तो, आशाएँ भी बढ़ी थीं, इस भ्रष्ट आवरण में, आचार ढूँढता हूँ। हैं देशभक्त सारे, मुहताज रोटियों को, चोरों की अंजुमन में, सरकार ढूँढता हूँ। कानून के दरों पर, इंसाफ बिक रहा है, काजल की कोठरी में, दरबार ढूँढता हूँ। दुनिया है बेदिलों की, ज़रदार पल रहे हैं, बस्ती में बुज़दिलों की, दिलदार ढूँढता हूँ। इंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है, मैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ। (चित्र गूगल छवि से साभार) |
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बुधवार, 10 नवंबर 2010
“राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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kaafi sundar vyangya rachna hai.........behatreen lekhan.
जवाब देंहटाएंbahut badhia!
जवाब देंहटाएंवाह क्या ख़ूब कहा है आपने शास्त्री जी आपने। हर शे’र पर वाह-वाह करता गया। काफ़ी अच्छी ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंकानून के दरों पर, इंसाफ बिक रहा है,
जवाब देंहटाएंकाजल की कोठरी में, दरबार ढूँढता हूँ।
Kya baat hai!
wah kya bbat hai.........bahut achchha
जवाब देंहटाएंहैं देशभक्त सारे, मुहताज रोटियों को,
जवाब देंहटाएंचोरों की अंजुमन में, सरकार ढूँढता हूँ।
sateek kathan!!!!
sundar rachna!!
कानून के दरों पर, इंसाफ बिक रहा है,
जवाब देंहटाएंकाजल की कोठरी में, दरबार ढूँढता हूँ।
बहुत अच्छी ग़ज़ल....
बहुत बढ़िया और चित्र तो जबर्दस्त्त.
जवाब देंहटाएंफिर बहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंदेश में आस व आँच बनाये रखने के लिये इन अंगारों की आवश्यकता है। बहुत ललकारती पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंवाह गुरुदेव ! हर एक शेर बहुत जबरजस्त निकला है ...यथार्थ का इतना सजीव चित्रण !!
जवाब देंहटाएंक्या कहने ..आभार
कानून के दरों पर, इंसाफ बिक रहा है,
जवाब देंहटाएंकाजल की कोठरी में, दरबार ढूँढता हूँ।
wonderful !!
हैं देशभक्त सारे, मुहताज रोटियों को,
जवाब देंहटाएंचोरों की अंजुमन में, सरकार ढूँढता हूँ।
दुनिया है बेदिलों की, ज़रदार पल रहे हैं,
बस्ती में बुज़दिलों की, दिलदार ढूँढता हूँ।
वाह ... बहुत खूब ...
बहुत गहरी बात कहती है आपकी ग़ज़ल ...
शुभकामनाएं ...
कल नींद में जो देखा, मैंने हसीन सपना,
जवाब देंहटाएंजीवन में वो महकता घर-बार ढूँढता हूँ।
बेहतरीन रचना.... बहुत खूब!.
प्रेमरस पर:
खबर इंडिया पर व्यंग्य - जैसे लोग वैसी बातें!
दुनिया है बेदिलों की, ज़रदार पल रहे हैं,
जवाब देंहटाएंबस्ती में बुज़दिलों की, दिलदार ढूँढता हूँ।
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बहुत सुन्दर रचना.... समय के साथ बहुत कुछ खो रहा है , हम सभी शायद उसी खोये हुए की तलाश में हैं।
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आदरणीय श्री रूप चंद्र शास्त्री जी, आप की यह ग़ज़ल सच में स्वाधीनता के बाद के भारत की घनघोर मीमांसा करती हुई सीधे दिल दिमाग़ में उतर जाती है| ऐसा नहीं कि इस में व्यक्त बातों को हम लोग पहली बार पढ़ /सुन रहे हैं, परंतु आपकी अभिव्यक्ति अनुभव से सनी होने के कारण अलग ही अमिट छाप छोड़ने में समर्थ है| आप को पढ़ते वक्त साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है कि बंदे [शास्त्री जी] ने इस अंतर्विरोध को जिया है| मायन्वर इस उत्कृष्ट कृति के लिए शत शत अभिनंदन|
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