बात दिल की जहाँ-जहाँ रखिए
एक परदा भी दरम्याँ रखिए
घोंसले जब बुने हैं काँटों से
क्यों बचाकर हथेलियाँ रखिए
हौसले अपने आज़माने को
हर कदम साथ आँधियाँ रखिए
मौसमों से नज़र मिलाने को
सर पे कोई न आसमाँ रखिए
हर जगह नाम उनका लिक्खा है
फिक्र है दासतां कहाँ रखिए
माया-ए-ग़म छुपाएँ किस-किस से
कीमती शै को अब कहाँ रखिए
बात दिल की किसी से तो कहिए
पास बेहतर है राज़दाँ रखिए
तब जनम लेगी नग़मगी शैली
दिल के जख्मों पे जब ज़ुबां रखिए
asha.shaili@gmail.com
बात दिल की जहाँ-जहाँ रखिए
जवाब देंहटाएंएक परदा भी दरम्याँ रखिए
क्या जानदार बात कही है.
बहुत बढ़िया.
आशा शैली जी की पिछली ग़ज़ल भी बेहतरीन थी... यह भी.. कुछ शेर तो अदभुद हैं...
जवाब देंहटाएंदिल के जख्मों पर जुबाँ रख देने से कितनी बातें सवँर जाती हैं।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत …………शानदार गज़ल्।
जवाब देंहटाएंबात दिल की किसी से तो कहिए
जवाब देंहटाएंपास बेहतर है राज़दाँ रखिए
इन पंक्तियों ने बेहद प्रभावित किया....बधाई |
शब्द नही है ........बहुत बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसादर
संध्या आर्य
आशा शैली जी से मेरी पहली भेंट शिमला में हुयी थी , तब वे वहीँ की निवासिनी थी . १९९७ में हिमाचल प्रदेश सरकार ने मुझे बाल साहित्य पर वक्तव्य हेतु आमंत्रित किया था . उनकी रचनाएँ अद्भुत हैं . उनका स्वभाव भी अनुपमेय है .
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