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बुधवार, 17 नवंबर 2010
"चार दिनों में..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
जवाब देंहटाएंचार दिनों में बेटों के, घर-द्वार बदल जाते हैं।
क्या बात है, खुबसूरत गज़ल बधाई
bahut sundar rachna!!!
जवाब देंहटाएंbadalti maanyataon ke beech kho gayi baaton ki tees si vyakt hui hai...
akshunn bane rahna chahiye kuch vimbon ko!!!!
regards,
सटीक अभिव्यक्ति ! देखिये माँ बाप ने बड़ा किया और हम यहाँ अमेरिका में और वो भारत में अकेले - सब कुछ बदल गया ...
जवाब देंहटाएंवाह ....
जवाब देंहटाएंबड़ी सुन्दर और आईना दिखाती अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सच्ची अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंअच्छा गीत!
जवाब देंहटाएंश्रद्धेय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
हमेशा की भांति श्रेष्ठ और उत्कृष्ट रचना के लिए अभार और बधाई !
माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-द्वार बदल जाते हैं।
भइया बने पड़ोसी, बैरी बने जिन्दगी भर को,
भाई-भाई के रिश्ते औऱ, प्यार बदल जाते हैं।
बहुत संवेदनात्मक हैं दोनों बंध …
पूरी रचना प्रभावित करती है ।
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ....एक एक पंक्ति का जवाब नहीं आज के समय की वास्तविकता को बयान करती है .
जवाब देंहटाएंप्यार-मुहब्बत के वादे, सब नही निभा पाते हैं,
जवाब देंहटाएंनीति-रीति के मानदण्ड, व्यवहार बदल जाते हैं।
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So true ! It's not easy for everyone to keep his promises.
.
सुन्दर गीत !
जवाब देंहटाएंमान्यवर
जवाब देंहटाएंनमस्कार
अच्छी रचना
मेरे बधाई स्वीकारें
साभार
अवनीश सिंह चौहान
पूर्वाभास http://poorvabhas.blogspot.com/
संबंधों के ताने बाने को आज के परिपेक्ष में संज्ञा देती बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंक्षमा, सरलता, धर्म-कर्म ही सच्चे आभूषण हैं,
जवाब देंहटाएंआपा-धापी में निष्ठा के, तार बदल जातेहैं।
माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-द्वार बदल जाते हैं।
वाह मंयक जी हर पँक्ति आज के बदलाव को चिन्हित करती हुयी
बधाई इस लाजवाब रचना के लिये।
खुबसूरत अभिव्यक्ति .....
जवाब देंहटाएंक्षमा, सरलता, धर्म-कर्म ही सच्चे आभूषण हैं,
जवाब देंहटाएंआपा-धापी में निष्ठा के, तार बदल जाते हैं।
माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-द्वार बदल जाते हैं।
भइया बने पड़ोसी, वैरी बने जिन्दगी भर को,
भाई-भाई के रिश्ते औऱ, प्यार बदल जाते हैं।
पूरी रचना ही दिल मे उतरने वाली…………बेहद खूबसूरत प्रस्तुति।
कंगाली में आटा गीला’, भूख बहुत लगती है,
जवाब देंहटाएंजीवन यापन करने के, आधार बदल जाते हैं।
मयंक जी इस बहुत सुंदर रचना के लिए बधाई
सुन्दर रचना, एक सुन्दर सन्देश के साथ शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंमाता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
जवाब देंहटाएंचार दिनों में बेटों के, घर-द्वार बदल जाते हैं।
बहुत ही गहन भाव लिये हुये सुन्दर पंक्तियां ।
hridy ke bhavon ko shabdon me vyakt karti kavita !
जवाब देंहटाएंsundar rachna.. aur tasweer bhi achhi hai.... aur aik haqiqat hai jis kaa ainaa dikhati hai kavita ..प्यार-मुहब्बत के वादे, सब नही निभा पाते हैं,
जवाब देंहटाएंनीति-रीति के मानदण्ड, व्यवहार बदल जाते हैं।
.....माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-द्वार बदल जाते हैं।