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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
"ग़ज़ल:आशा शैली" (प्रस्तोता:डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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oonchi bahut faseeleni hain....
जवाब देंहटाएंwah wah wah....!
पहले शेर में ही आनन्द आ गया....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल.. खास तौर पर दूसरा शेर :
जवाब देंहटाएं"छेड़ न उसके ज़ख़्मों को
रूह में गहरी कीलें हैं"
बहुत गहरे भाव लिए अच्छी गज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे , ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं
जवाब देंहटाएंछेड़ न उसके ज़ख़्मों को
रूह में गहरी कीलें हैं
बच्चों की हँसती आखें
या रौशन कन्दीले हैं
रात-रात फर जगने की
पुख़्ता बहुत दलीलें हैं
ये आपके ब्लौग के साइड बार के साथ साथ बहुत दूर तक पोस्ट में प्लेन हिस्सा क्यों रहता है , 15 मिनट तक लगा की कुछ लोड ही नहीं हो रहा , फिर नीचे तक स्क्रोल कर के पता लगा कि रचना बहुत नीचे है ...
्रात-रात भर जगने की ,
जवाब देंहटाएंपुख़्ता बहुत दलीलें हैं।
बेहतरीन शे'र ख़ूबसूरत ग़ज़ल्।
दो पल तू भी हँस के देख
जवाब देंहटाएंसुख की बहुत सबीलें हैं
ग़म यूँ उथले कर जैसे
दीवाली की खीलें हैं
उमदा शेर आशा जी की गज़ल बहुत अच्छी लगी बधाई।
.
जवाब देंहटाएंछेड़ न उसके ज़ख़्मों को
रूह में गहरी कीलें हैं
उम्दा ग़ज़ल !
.
रात-रात फर जगने की
जवाब देंहटाएंपुख़्ता बहुत दलीलें हैं
waah ... बहुत खूब ...
आशा जी को इस गज़ल के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंशब्दों की सुन्दर संरचना।
जवाब देंहटाएं