नज़ारों में भरा ग़म है, बहारों
में नहीं दम है,
फिजाएँ भी बहुत नम हैं, सितारों में भरा तम है
हसीं
दुनिया बनाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
नहीं
आभास रिश्तों का, नहीं एहसास नातों का
किसी को आदमी की है, नहीं विश्वास बातों का
बसेरे
को बसाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
लुभाती
गाँव की गोरी, सिसकता प्यार भगिनी का
सुहाती
अब नहीं लोरी, मिटा उपकार जननी का
सरल
उपहार पाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
नहीं
गुणवान बनने की, ललक धनवान बनने की
बुजुर्गों
की हिदायत को, जरूरत क्या समझने की
वतन
में अमन लाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
भटककर
जी रही दुनिया, सिमटकर जी रही दुनिया
सभी
को चाहिएँ बेटे, सिसककर जी रही मुनिया
चहक
ग़ुलशन में लाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
|
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बुधवार, 31 जुलाई 2013
"हमें फुरसत नहीं मिलती" (ड़ॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 30 जुलाई 2013
"जाम ढलने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
करते-करते भजन, स्वार्थ छलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। झूमती घाटियों में, हवा बे-रहम, घूमती वादियों में, हया बे-शरम, शीत में है तपन, हिम पिघलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। उम्र भर जख्म पर जख्म खाते रहे, फूल गुलशन में हरदम खिलाते रहे, गुल ने ओढ़ी चुभन, घाव पलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। हो रहा सब जगह, धन से धन का मिलन, रो रहा हर जगह, भाई-चारा अमन, नाम है आचमन, जाम ढलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। |
सोमवार, 29 जुलाई 2013
"1800वीं पोस्ट-शम्मा सारी रात जली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कर्कश
सुर से तो होती है, खामोशी की तान भली
जल
जाता शैतान पतिंगा, शम्मा सारी रात जली
दो
पल का तूफान, तबाही-बरबादी को लाता है
कभी
न थकती मन्द हवा, जो लगातार दिन-रात चली
बचपन-यौवन
साथ न देता, कभी किसी का जीवन भर
सिर्फ
बुढ़ापे के ही संग में, इस जीवन की शाम ढली
सूखे
भी हों पात शज़र के, वो छाया ही देते हैं
छलते
हैं मुस्कानों से, ग़ुलशन के छलिया फूल-कली
करता
दग़ा हमेशा है ये, नहीं “रूप” पर जाना तुम
लोग
हमेशा से कहते हैं, होता है ये हुस्न छली
|
रविवार, 28 जुलाई 2013
"अब आ जाओ कृष्ण-कन्हैया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
धूल भरी क्यों आज गगन में?
क्यों है अँधियारा उपवन में?
सूरज क्यों दिन में शर्माया?
भरी दुपहरी में क्यों छाया? चन्दा गुम क्यों बिना अमावस? नजर नही आती क्यों पावस? क्यों है धरती रूखी-रूखी? क्यों है खेती सूखी-सूखी? छागल क्यों हो गई विदेशी? पागल क्यों है आज स्वदेशी? कहाँ गयी माता की बिन्दी? सिसक रही क्यों अपनी हिन्दी? प्यारी भाषा बहक रही क्यों? अंग्रेजी ही चहक रही क्यों? कहने भर की आजादी है! आज वतन की बर्बादी है!! नजर न आता कहीं अमन है! दागदार हो गया चमन है!! कहाँ हो गई चूक भयंकर? विष उडेलते हैं क्यों शंकर? रक्षक जब उत्पात मचाये! विपदाओं से कौन बचाये? आस लगाये यशोदा मइया! अब आ जाओ कृष्ण-कन्हैया!! |
शनिवार, 27 जुलाई 2013
"ग़ज़ल-गुनगुनाओ तो सही" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
तार की झनकार पर, कुछ गुनगुनाओ तो सही
ज़िन्दगी इक साज है, इसको बजाओ तो सही
गिले-शिकवों का नहीं, देना कोई तोहफा यहाँ
प्यार के सागर में तुम, गोता लगाओ तो सही
दिल है नाज़ुक सा खिलौना, तोड़ मत देना इसे
प्यार के अन्दाज़ से, तुम पेश आओ तो सही
है कुटिल धारा मगर, भोली बहुत हैं मछलियाँ
मगर के मुख से कभी, इनको बचाओ तो सही
आज तो बिगड़ा हुआ, इस ज़िन्दग़ी का ढंग है
सादगी से “रूप” को, फिर से दिखाओ तो सही
|
शुक्रवार, 26 जुलाई 2013
"अच्छी नहीं लगतीं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
वफा और प्यार की बातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं। तपन के बाद बरसातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं। मिलन होता जहाँ बिछड़ी हुई, कुछ आत्माओं का, चमकती वो हसीं रातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं।। गुलो-गुलशन की बरबादी, हमें अच्छी नहीं लगती। वतन की बढ़ती आबादी, हमें अच्छी नहीं लगती। जुल्म का सामना करने को, जिसको ढाल माना था- सितम करती वही खादी, हमें अच्छी नहीं लगती।। |
गुरुवार, 25 जुलाई 2013
‘‘आदत है हैवानों की’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गलती करना और पछताना, आदत है इन्सानों की।
गलती पर गलती करना तो, आदत है हैवानों की।। दर्द पराया अपने दिल में, जिस आदम ने पाला है, उसके जीने का तो बिल्कुल ही अन्दाज़ निराला है, शम्मा पर जल कर मर जाना, चाहत है परवानों की। गलती पर गलती करना तो, आदत है हैवानों की।। मित्र-पड़ोसी के अन्तस् में, जब तक पलती दूरी हैं, तब तक रहती मित्र भावना की कल्पना अधूरी हैं, बेदिल वालों की दुनिया में, दुर्गत है अरमानों की। गलती पर गलती करना तो, आदत है हैवानों की।। खाया नमक देश का लेकिन नमक हलाली भूल गये, अन्धे होकर दहशतगर्दों के हाथों में झूल गये, दुनिया में दहशत फैलाना, फितरत है शैतानों की। गलती पर गलती करना तो, आदत है हैवानों की।। |
बुधवार, 24 जुलाई 2013
"कैसे उलझन को सुलझाऊँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
किस पथ पर मैं कदम बढ़ाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
दोराहे
मन को भटकाते
मुझको
अपनी ओर बुलाते
कैसे
उलझन को सुलझाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
किसी
डगर में नहीं फूल हैं
दोनों
में भरपूर शूल हैं
दुविधा
है किसको अपनाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
मीठी
वाणी बोल रहे हैं
मेरा
सुमन टटोल रहे हैं
संगी-साथी
किसे बनाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
लील
गयी है चाँद अमावस
लाऊँ
कहाँ से उजली पावस
नाथ आपको कैसे पाऊँ
जिससे मंजिल को पा जाऊँ |
मंगलवार, 23 जुलाई 2013
"सावन की है छटा निराली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सावन
की है छटा निराली
धरती
पर पसरी हरियाली
तन-मन
सबका मोह रही है
नभ
पर घटा घिरी है काली
मोर-मोरनी
ने कानन में
नृत्य
दिखाकर खुशी मना ली
सड़कों
पर काँवड़ियों की भी
घूम
रहीं टोली मतवाली
झूम-झूम
लहराते पौधे
धानों
पर छायीं हैं बाली
दाड़िम,
सेब-नाशपाती के,
चेहरे
पर छायी है लाली
लेकिन
ऐसे में विरहिन का
उर-मन्दिर
है खाली-खाली
प्रजातन्त्र
के लोभी भँवरे
उपवन
में खा रहे दलाली
कैसे निखरे "रूप" गुलों का
करते हैं मक्कारी माली
|
रविवार, 21 जुलाई 2013
"आया नये शहर में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब गाँव का मुसाफिर, आया
नये शहर में।
गुदड़ी
में लाल-ओ-गौहर, लाया नये शहर में।
इज्जत
का था दुपट्टा, आदर की थी चदरिया,
जिल्लत
का दाग़ उसने, पाया नये शहर में।
चलती
यहाँ फरेबी, हत्यायें और डकैती,
बस
खौफ का ही आलम, छाया नये शहर में।
औरत
के हुस्न थी, चारों तरफ नुमायस,
शैतानियत
का देखा, साया नये शहर में।
इंसानियत
यहाँ तो, देखी जलेबियों सी,
मिष्ठान
झूठ का भी, खाया नये शहर में।
इससे
हजार दर्जे, बेहतर था गाँव उसका,
फिर
“रूप” याद उसको, आया
नये शहर में।
|
"मेरी ग़ज़ल-राज एक्सप्रेस, ग्वालियर में"
गीत में साज बजाओ तो कोई बात बने।।
एक दिन मौज मनाने से क्या भला होगा?
रोज दीवाली मनाओ तो कोई बात बने।
इन बनावट के उसूलों में धरा ही क्या है?
प्रीत हर दिल में जगाओ तो कोई बात बने।
क्यों खुदा कैद किया दैर-ओ-हरम में नादां,
रब को सीने में सजाओ तो कोई बात बने।
सिर्फ पुतलों के जलाने से फायदा क्या है?
दिल के रावण को जलाओ तो कोई बात बने।
शनिवार, 20 जुलाई 2013
"चन्द्रमा सा रूप मेरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बाँटता ठण्डक सभी को, चन्द्रमा सा रूप मेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
रश्मियों
से प्रेमियों को मैं बुलाता,
चाँदनी
से मैं दिलों को हूँ लुभाता,
दीप
सा बनकर हमेशा, रात का हरता अन्धेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
मैं
मुसाफिर हूँ-विहग हूँ रात का,
संयोग
हूँ-खग हूँ, सुहाने साथ का,
भोर
होने पर विदा होकर, बुलाता हूँ सवेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
बालपन,
यौवन-बुढ़ापे को बताता,
हर
अमावस को सदा परलोक जाता,
चार
दिन की चाँदनी के बाद, लुट जाता बसेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
रोज
ही मैं “रूप” को अपने बदलता,
उम्र
को अपनी कला से, नित्य छलता,
लील
लेता वक्त, कितना भी रहे मजबूत डेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
|
शुक्रवार, 19 जुलाई 2013
"नखरे भी उठाये जाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
आज एक कव्वाली बन पड़ी है...!
नजरों से गिराने की ख़ातिर,
पलकों पे सजाये जाते
हैं।
मतलब के लिए सिंहासन पर, उल्लू भी बिठाये जाते
हैं।।
जनता ने चुना नहीं जिनको, वो चोर द्वार से आ
पहुँचे,
माटी के बुत हैं असरदार,
सरदार बनाये जाते हैं।
ढका हुआ भाषण से ही, ये लोकतन्त्र का चेहरा है
लोगों को सुनहरी-ख्वाब यहाँ, हर बार दिखाये
जाते हैं।
आगे से अरबी घोड़ी है, पीछे से लगती गैया है,
परदेशी दुधारू गैया के,
नखरे भी उठाये जाते
हैं।।
संकर नसलें-संकर फसलें, जब से आई हैं भारत में,
तब से जन-गण की आँखों में, आँसू ही पाये जाते
हैं।
मम्मी जी को तो अपना ही, दामाद बहुत ही भाता
है,
निर्धन बेटों की भूमि पर, वो महल बनाये जाते
हैं।
गांधी बाबा के खादर में, कब्जा है आज लुटेरों
का,
खद्दर की ओढ़ चदरिया को, धन-माल कमाये जाते
हैं।
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