वक्त
सही हो तो सारा, संसार सुहाना लगता है।
बुरे
वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
यदि
अपने घर व्यंजन हैं, तो बाहर घी की थाली है,
भिक्षा
भी मिलनी मुश्किल, यदि अपनी झोली खाली है,
गूढ़
वचन भी निर्धन का, जग को बचकाना लगता है।
बुरे
वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
फूटी
किस्मत हो तो, गम की भीड़ नजर आती है,
कालीनों
को बोरों की, कब पीड़ नजर आती है,
कलियों
को खिलते फूलों का रूप पुराना लगता है।
बुरे
वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
धूप-छाँव
जैसा, अच्छा और बुरा हाल आता है,
बारह
मास गुजर जाने पर, नया साल आता है,
खुशियाँ
पा जाने पर ही अच्छा मुस्काना लगता है।
बुरे
वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
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रविवार, 14 जुलाई 2013
"रूप पुराना लगता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंमहोदय.........साभार....
बहुत सटीक.
जवाब देंहटाएंरामराम.
वाह !!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंजीवन का यथार्थ गीत में उतर आया है.
गूढ़ वचन भी निर्धन का, जग को बचकाना लगता है---इस पंक्ति के लिये खासतौर पर दाद स्वीकार कीजिये......
bahut umda...
जवाब देंहटाएंfooti kishmat ho apani,gam ki bheed najar tab aati hai. sundar kaalino ko boro ki,yanha peed najar kab aati hai. bahut sundar.
जवाब देंहटाएंवक्त सही हो तो सारा, संसार सुहाना लगता है।
जवाब देंहटाएंअपने तो अपने बेगाना भी अपना लगता है .....
सटीक रचना शास्त्री जी ....
वक्त सही हो तो सारा, संसार सुहाना लगता है।
जवाब देंहटाएंबुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
बहुत खूब,सुंदर और सटीक प्रस्तुति,,,
RECENT POST : अपनी पहचान
बहुत सुन्दर है कहावतों को चंद में पिरोना .वाह !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब,सुंदर और सटीक प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंbahut hee sateek baat
जवाब देंहटाएंबहुत बड़ा सच कहा है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दरा रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दरा रचना।
जवाब देंहटाएं