बाँटता ठण्डक सभी को, चन्द्रमा सा रूप मेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
रश्मियों
से प्रेमियों को मैं बुलाता,
चाँदनी
से मैं दिलों को हूँ लुभाता,
दीप
सा बनकर हमेशा, रात का हरता अन्धेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
मैं
मुसाफिर हूँ-विहग हूँ रात का,
संयोग
हूँ-खग हूँ, सुहाने साथ का,
भोर
होने पर विदा होकर, बुलाता हूँ सवेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
बालपन,
यौवन-बुढ़ापे को बताता,
हर
अमावस को सदा परलोक जाता,
चार
दिन की चाँदनी के बाद, लुट जाता बसेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
रोज
ही मैं “रूप” को अपने बदलता,
उम्र
को अपनी कला से, नित्य छलता,
लील
लेता वक्त, कितना भी रहे मजबूत डेरा।
तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
|
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शनिवार, 20 जुलाई 2013
"चन्द्रमा सा रूप मेरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (21 -07-2013) के चर्चा मंच -1313 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत शानदार.
जवाब देंहटाएंरामराम.
वाह !
जवाब देंहटाएंकविता बहुत अच्छी लगी परन्तु एक जिज्ञासा है कि यह कविता चाँद के बारे में है तो फिर इसका नाम आपने "चन्द्रमा सा रूप मेरा" क्यों रखा है? कृपया इस शंका का समाधान करने की कृपा करें!
जवाब देंहटाएंसादर,
सारिका मुकेश
बहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार.
जवाब देंहटाएंवाह, घेरा घनेरा, सुन्दर शब्द..स्पष्ट और व्यक्त..
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना,आदरणीय आभार।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहत सुन्दर रचना !
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बहुत ही सुन्दर रचना चन्द जैसे स्वच्छ और निर्मल सा !!
जवाब देंहटाएंरश्मियों से प्रेमियों को मैं बुलाता,
जवाब देंहटाएंचाँदनी से मैं दिलों को हूँ लुभाता,
दीप सा बनकर हमेशा, रात का हरता अन्धेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
मैं मुसाफिर हूँ-विहग हूँ रात का,
संयोग हूँ-खग हूँ, सुहाने साथ का,
भोर होने पर विदा होकर, बुलाता हूँ सवेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
.....बहोत सुन्दर !!!