मुझे
तो छन्द और मुक्तक, बनाना भी नहीं आता।
ग़ज़ल
में शैर और मक़्ता, लगाना भी नहीं आता।।
दिलों
के बलबलों को मैं, भला अल्फ़ाज़ कैसे दूँ,
मुझे
लफ्ज़ों का गुलदस्ता, सजाना भी नहीं आता।
सुहाने
साज मुझको, प्यार से आवाज़ देते हैं,
मगर
मजबूर हूँ, इनको बजाना भी नहीं आता।
भरा
है प्यार का सागर, मैं कैसे जाम में ढालूँ,
भरी
गागर का पानी, मुझको छलकाना नहीं आता।
महकता
है-चहकता है, ये ग़ुलशन खिलखिलाता है,
मुझे
क्यारी में खारे जल को, टपकाना नहीं आता।
भयानक
“रूप” पर, कोई फिदा
कैसे भला होगा,
मुखौटा
माँज-धोकर, मुझको चमकाना नहीं आता।
|
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शनिवार, 13 जुलाई 2013
"नहीं आता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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एक बहुत ही प्रभावशाली एवँ उत्कृष्ट रचना ! अति सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रबावी रचना, कुछ नहीं ज्ञात पर दिशा तो ज्ञात है।
जवाब देंहटाएंसुंदर अर्थपूर्ण भाव
जवाब देंहटाएंमुझे तो छन्द और मुक्तक, बनाना भी नहीं आता।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल में शैर और मक़्ता, लगाना भी नहीं आता।।
अपनी रचनाओं से आप कितनों के दिल को छूते हैं! इतनी सुंदर पंक्तियाँ लिखने के बावजूद आप लिखते हैं:
दिलों के बलबलों को मैं, भला अल्फ़ाज़ कैसे दूँ,
मुझे लफ्ज़ों का गुलदस्ता, सजाना भी नहीं आता।
बहुत खूब लिखा है आपने, साधुवाद और बधाई!
सृजन मंच पर दोहों पर चर्चा कर आपने बड़ा पुनीत कार्य किया है, उसके लिए फिर से एक बार आपको साधुवाद और बधाई! आपसे गुजारिश है कि कभी मुक्तकों पर भी यूँ ही चर्चा हो!
सादर/साभार,
डॉ. सारिका मुकेश
बहुत ही खुबसूरत एवं अर्थपूर्ण रचना!
जवाब देंहटाएंlatest post केदारनाथ में प्रलय (२)
अर्थपूर्ण सुन्दर रचना!...आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
मन के उदगार कैसे भी व्यक्त होने चाहिये
जवाब देंहटाएंगज़ल बहर के खेल से परे होने चाहिये
भयानक “रूप” पर, कोई फिदा कैसे भला होगा,
जवाब देंहटाएंमुखौटा माँज-धोकर,मुझको चमकाना नहीं आता।
वाह !!! बहुत खूब,सुंदर गजल,,,
RECENT POST : अपनी पहचान
मेरा नमन स्विकार करें...
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव...
यही तोसंसार है...
बहुत बढ़िया प्रस्तुति बधाई आपको आदरणीय
जवाब देंहटाएंआप को क्या क्या आता है आप नही इससे वाकिफ,
जवाब देंहटाएंलाजवाब लिखते हैं आप, पर मुझे कहना नही आता ।
beautiful
जवाब देंहटाएंapki kalam ney bata diya ki apko kya kya aata hai.....sunder abhivyakti
जवाब देंहटाएं