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बुधवार, 31 अक्टूबर 2012
"फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"रूप छलता रहा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मखमली ख्वाब आँखों में पलता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
अश्क मोती बने मुस्कुराने लगे,
सारे सोये सुमन खिलखिलाने लगे,
सुख सँवरता रहा, दर्द जलता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
तुम जो ओझल हुए अटपटा सा लगा,
जब दिखाई दिये चटपटा सा लगा,
ताप बढ़ता रहा, तन सुलगता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
उर के मन्दिर में ही प्रीत पलती सदा,
शैल-शिखरों से गंगा निकलती सदा,
स्वप्न मेरा हकीकत में ढलता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
आज फिर से सितारों भरा है गगन,
कितना निखरा हुआ, चन्द्रमा का बदन,
चाँदनी का हमें. “रूप” छलता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
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सोमवार, 29 अक्टूबर 2012
"रिश्वत में गुम हो गई प्राञ्जलता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 27 अक्टूबर 2012
"कानून में बदलाव लाना चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लालची कुत्तों से दामन को बचाना चाहिए।
अज़नबी
घोड़ों पे बाज़ी ना लगाना चाहिए।।
आज
फिर खुदगर्ज़ करने, चापलूसी आ गये,
चापलूसों
पर भरोसा ना जमाना चाहिए।
बेच देंगे वतन को अपने, सियासत के फकीर,
मुल्क
की जी-जान से अस्मत बचाना चाहिए।
कब
तलक करते रहेंगे हम पड़ोसी पर यकीन,
दुश्मनों
को भूलकर ना आज़माना चाहिए।
क़ातिलों
को जेल में कबतक खिलाओगे कबाब,
ऐसे
गद्दारों को फाँसी पे चढ़ाना चाहिए।
माफ
करने की अदा, अच्छी नहीं मेरे हुजूर,
अब
लचर कानून में बदलाव लाना चाहिए।
“रूप” दिखलाकर नहीं दौलत कमाना चाहिए,
अपनी
मेहनत से मुकद्दर को बनाना चाहिए।
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शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012
"दरख़्त का पीला पत्ता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 24 अक्टूबर 2012
"!!रावण या रक्तबीज!!" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
विजयादशमी
(दशहरा)
की
हार्दिक शुभकामनाएँ!
!!रावण या रक्तबीज!!
दशहरा है
राक्षसों
के
गगनचुम्बी
पुतले
मैदान
में सजे हैं
रामलीला
मैदान में
मेला लगा
है
लोगों की
भीड़ में
श्री राम
के
जय के
उद्घोष के साथ
पुतलों
का के साथ
युद्ध शुरू
हो चुका था
नवयुग की
यही तो
मर्दानगी है।
--
चार
बालाएँ
गुम हो
गई हैं
बार-बार
एक ही
प्रश्न
मन में
उठ रहा था
"रावण को तो राम ने
रामलीला
में मार दिया है’’
फिर किस
से राक्षस ने
चार
सीताओं का हरण किया।
--
रावण
आमआदमी नहीं
रक्तबीज
है कोई
एक मरता
है
हजार
जन्म ले लेते हैं
उन्हीं
में से
किसी ने
इन चार
सीताओं का
हरण किया
होगा!
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मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012
"खुली आँखों का सपना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सोमवार, 22 अक्टूबर 2012
"गंगा का अस्तित्व बचाओ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
नद-नालों, सरिताओँ को भी,
जो
खुश होकर अंग लगाती।
धरती
की जो प्यास बुझाती,
वो
पावन गंगा कहलाती।।
आड़े-तिरछे
और नुकीले,
पाषाणों
को तराशती है।
पर्वत
से मैदानों तक जो,
अपना
पथ खुद तलाशती है।
गोमुख
से सागर तक जाती।
वो
पावन गंगा कहलाती।।
फसलों
को नवजीवन देती,
पुरखों
का भी तर्पण करती।
मैल
हटाती-स्वच्छ बनाती,
मन
का निर्मल दर्पण करती।
कल-कल,
छल-छल नाद सुनाती।
वो
पावन गंगा कहलाती।।
चलना
ही जीवन होता है
जो
रुकता है वो सड़ जाता,
जो
पत्रक नहीं लहराता है,
वो
पीला पड़कर झड़ जाता।
चरैवेति
सन्देश सिखाती।
वो
पावन गंगा कहलाती।।
मैला
और विषैला पानी,
गंगा
में अब नहीं बहाओ।
समझो
अपनी जिम्मेदारी,
गंगा
का अस्तित्व बचाओ।
जो
अपने पुरखों की थाती।
वो
पावन गंगा कहलाती।।
|
रविवार, 21 अक्टूबर 2012
"ब्लॉगिंग एक नशा नहीं आदत है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012
"आज उच्चारण की 1500वीं पोस्ट है!"
मित्रों!
आज उच्चारण की 1500वीं पोस्ट है!
21 जनवरी, 2009 को
हिन्दी ब्लॉगिंग शुरू की थी!
इस अल्पअन्तराल में
बहुत से उतार-चढ़ाव भी देखे,
परन्तु उच्चारण का कारवाँ रुका नहीं!
अब उच्चारण पर मेरी पोस्ट
मंगलवार और शुक्रवार को ही आयेंगी!
कोशिश यह रहेगी
कि अपने अन्य ब्लॉगों पर भी
2-3 दिन के अन्तराल पर
पोस्ट लगाता रहूँ।
इस अवसर पर
देखिए मेरी यह रचना!
लक्ष्य तो मिला नहीं, राह नापता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया।
स्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया।
शूल की धसान में, फूल छाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
चेतना के गाँव में, चेतना तो सो गयी।
अन्धकार छा गया, सुबह से शाम हो गयी,
और मैं मकान में, गूल पाटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
रत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में।
अभी तो कुछ मिला नहीं, पत्थरों के वेश में।
अपने ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
चन्द्रिका ‘मयंक’
की, तन-बदन जला रही।
कुटिलग्रहों की चाल अब, कुचक्र को चला रही।
और मैं मचान की, झूल काटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
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गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012
पं. नारायण दत्त तिवारी जी जीवेम् शरदः शतम्!
पीछे की पंक्ति में हूँ मैं)
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