झूलते हैं
शाख़ से
ज़र्द पत्तों की भला
कीमत कहाँ
बस किताबों के लिए
अपना वुजूद
किस लिए
यूँ कांपते उड़ते फिरें
थरथराते-डोलते से
यूँ हवा के देश पर
क्यों निगाहे ज़ीस्त में
घिरते फिरें
एक दिन सूखेंगे और
पतझड़ बनेंगे
पाँव के नीचे कुचल
पिसते रहेंगे
चरमराते तोड़ते ख़ामोशियाँ
पर शिकायत है
शजर से
कल तलक हम से ही था
उसका वुजूद
आज उसकी शाख़-शाख़
हमको हवा देने लगी
कब गिरें हम टूटकर
हरएक पत्थर कह रहा
और हम लाचार पत्ते
बस हवाओं से डरें
देखिए अब ये हवाएँ क्या करें
पर नहीं मिट के भी मिट पाएँगे हम
ये हवा हम को
कहीं ले जाएगी
एक झरना
बह रहा जो प्रीत का
हम उसी की ओर
क्यों न रुख़ करें
मिल के पानी में
उगें फिर फूल बन जाएँ कहीं
और खुशबू बन के फैलें
इस जहाँ में
आओ साथी
हम हवा के संग
तलाशें हम सुख़न
कुछ मचलते से आबशार
वाह गुरु जी वाह-
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति |
आभार ||
रचनाकार को बधाई ||
बहुत सुन्दर रचना....
जवाब देंहटाएंआभार शास्त्री जी.
सादर
अनु
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,,,,,रचनाकार को बधाई,,,
जवाब देंहटाएंआशा जी को इस सुन्दर रचना हेतु बहुत बहुत बधाई और साझा करने के लिए शास्त्री जी को भी बधाई
जवाब देंहटाएंsahi maayane mein ek aisi shbd rachna hai yah jo bhawo se paripurn hai
जवाब देंहटाएंek sangraneey rachna.. padh liya aur kafi kuch seekh bhi liya..
आशा जी को बधाई .....एक सोच ..नाकारात्म से सकारात्म की ओर
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ९/१०/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन रचना..:-)
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना !
जवाब देंहटाएंइस सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार शास्त्री जी ,साथ ही आशा जी को भी इस सकारात्मक रचना के लिए बधाई
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