शीतल प्रात,
छोटे दिन, लम्बी रात,
बरसात का पलायन,
पितरों को भोजन,
पुरखों की खोज,
कौओं की मौज,
खेतों में,
धान की सुगन्ध,
मूँगफली के
होलों की गन्ध,
नर-नारियों का
हुजूम,
रामलीला की धूम,
परम्पराओं का
निर्वहन,
सज रहे हैं
सिंहासन,
मुन्नों को दुलार,
मुन्नियों को
दुत्कार,
कुदरत के
निराले रंग,
यही तो हैं,
हमारे जीवन के ढंग।
|
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बुधवार, 3 अक्तूबर 2012
"गद्यगीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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यही तो हैं,
जवाब देंहटाएंहमारे जीवन के ढंग।
बखूबी वर्णन किया शास्त्री जी हमारे निराले ढंग का ...!!
बहुत बढ़िया....
जवाब देंहटाएंकुदरत के निराले रंग और हमारे बेढंगे ढंग...
सादर
अनु
है सटीक यह व्याख्या, फैले जीवन रंग |
जवाब देंहटाएंरंग- ढंग कुछ नए किन्तु, करते रविकर दंग |
प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
जवाब देंहटाएंजीवन की रंग-बिरंगी व्याख्या करते निराले ढंग
जवाब देंहटाएंवस्तुतः 'श्राद्ध और तर्पण'=श्रद्धा +तृप्ति। आशय यह है कि जीवित माता-पिता,सास-श्वसुर एवं गुरु की इस प्रकार श्रद्धा-पूर्वक सेवा की जाये जिससे उनका दिल तृप्त हो जाये। लेकिन पोंगा-पंथियों ने उसका अनर्थ कर दिया और आज उस स्टंट को निबाहते हुये लोग वही कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंकविता का रस
जवाब देंहटाएंमन में गया बस
सधे हुए छंद आया आनंद
कुदरत के निराले रंग , यही हमारे जीने के ढंग !
जवाब देंहटाएंकौऎ तो बस पूरी
जवाब देंहटाएंसब्जी ही खा पाते हैं
काजू किश्मिश भी
बहुत लोग दिखाते हैं
बुजुर्ग जिनके घरों के
जिंदगी भर जिन्हें
नहीं देख पाते हैं !
बढ़िया गद्य गीत लेकिन शास्त्री जी कौवे तो अब सिर्फ राजनीति में ही शेष रह गएँ हैं .पारि- तंत्र तो हमने मेट दिए .
जवाब देंहटाएंबढ़िया गद्य गीत लेकिन शास्त्री जी कौवे तो अब सिर्फ राजनीति में ही शेष रह गएँ हैं .पारि- तंत्र तो हमने मेट दिए .
जवाब देंहटाएंबढ़िया गद्य गीत...कुदरत के निराले रंग और हमारे बेढंगे ढंग...
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