जब गाँव का मुसाफिर, आया
नये शहर में।
गुदड़ी
में लाल-ओ-गौहर, लाया नये शहर में।
इज्जत
का था दुपट्टा, आदर की थी चदरिया,
जिल्लत
का दाग़ उसने, पाया नये शहर में।
चलती
यहाँ फरेबी, हत्यायें और डकैती,
बस
खौफ का ही आलम, छाया नये शहर में।
औरत
के हुस्न थी, चारों तरफ नुमायस,
शैतानियत
का देखा, साया नये शहर में।
इंसानियत
यहाँ तो, देखी जलेबियों सी,
मिष्ठान
झूठ का भी, खाया नये शहर में।
इससे
हजार दर्जे, बेहतर था गाँव उसका,
फिर
“रूप” याद उसको, आया
नये शहर में।
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रविवार, 21 जुलाई 2013
"आया नये शहर में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंकरती सुंदर रचना .....
साभार....
वाह! वाह! वाह!
जवाब देंहटाएंछोड़ स्वर्ग हम नरक ढूंढ़ते..
जवाब देंहटाएंसटीक कहा आपने.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंhum tere shehar mein aaye hain musaafir ki tarah,
जवाब देंहटाएंइंसानियत यहाँ तो, देखी जलेबियों सी,
जवाब देंहटाएंमिष्ठान झूठ का भी, खाया नये शहर में।
..बहुत सटीक