कुटिलता के भाव को पहचानते हैं, शत्रुता दिल में नहीं हम ठानते हैं। वो बहुत खुलकर चलाते बाण अपने, किन्तु हम चुपचाप सहना जानते हैं।। हम सुमन के हैं हितैषी, गन्ध को पहचानते हैं, इसलिए हमसे कुटिल-काँटे, लड़ाई ठानते हैं। छेदते हैं जो सुकोमल पुष्प का नाजुक बदन, ठोकरों से हम उन्हें, हरदम कुचलना जानते हैं।। बुज़दिली! दरियादिली को मत समझना, दिल्लगी! दिल की लगी को मत समझना। वक्त आने पर बहा देंगे रुधिर की धार को, खड्ग को लाचार इतना मत समझना।। |
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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011
"तीन मुक्तक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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कुटिलता के भाव को पहचानते हैं,
जवाब देंहटाएंशत्रुता दिल में नहीं हम ठानते हैं।
वो बहुत खुलकर चलाते बाण अपने,
किन्तु हम चुपचाप सहना जानते हैं।।.... ्वाह: तीनो बहुत सुन्दर हैं......आभार
अह्हा! आनंद आ गया सर,
जवाब देंहटाएंसादर बधाईयाँ....
आज तेवर अलग हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंबुज़दिली! दरियादिली को मत समझना,
जवाब देंहटाएंदिल्लगी! दिल की लगी को मत समझना।
वक्त आने पर बहा देंगे रुधिर की धार को,
खड्ग को लाचार इतना मत समझना।।
वाह जोशपूर्ण पंक्तियाँ.
josheele bhaav ki panktiyan....vaah....bahut khoob.
जवाब देंहटाएंआपने अच्छा किया...जो समझा दिया...शराफत को कमजोरी समझने की भूल मत करना...
जवाब देंहटाएंजोश से भरी पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंगजब के तेवर.....
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
वो बहुत खुलकर चलाते बाण अपने,
जवाब देंहटाएंकिन्तु हम चुपचाप सहना जानते हैं।।
वाह,,क्या खूब कहा है सर ! जज्बात जबान पर आ ही जाते हैं , बधाईयाँ ..../
bahut hee sundar muktak likhe hain shaastri ji..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और लाजवाब पंक्तियाँ! हमेशा की तरह ज़बरदस्त प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंbahut khub...........shaandaar
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