पकने को तैयार खड़े हैं! शाखाओं पर लदे पड़े हैं!!झूमर बनकर लटक रहे हैं! झूम-झूम कर मटक रहे हैं!! कोई दशहरी कोई लँगड़ा! फजरी कितना मोटा तगड़ा!! बम्बइया की शान निराली! तोतापरी बहुत मतवाली!! कुछ गुलाब की खुशबू वाले! आम रसीले भोले-भाले!! |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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सोमवार, 31 मई 2010
"आम रसीले भोले-भाले!!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
रविवार, 30 मई 2010
“महत्वपूर्ण-सूचना” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“मेरे मोबाइल से गालियाँ सुनाई दीं”
मित्रों! अलीगढ़ बारात में गया था! 28-05-2010 को रात्रि में 8:30 और 9:00 बजे के मध्य मेरा मोबाइल किसी मनचले पाकेटमार ने उड़ा लिया! उसके बाद मेरे दूसरे मोबाइल नं.-09997996437 पर गालियाँ सुनाई दी! बाद में कई मित्रों का फोन आया कि आपके मोबाइल से हमें गालियाँ सुनाई पड़ीं! मैंने रिलाइंस के कस्टुमर केयर से बात करके यह नं.-0368499921 बन्द करने का निवेदन कर दिया है! लेकिन इस प्रक्रिया में 3 घण्टे तक लग जाते हैं! इस मोबाइल में कई महत्वपूर्ण नम्बर सेव थे! हो सकता है कि 28-05-2010 को रात्रि में 8:30 और 9:00 बजे के मध्य आपको भी इस नम्बर से अशोभनीय कॉल आई हों! कृपया अन्यथा नहीं लेंगे ! 'चर्चा मंच’ के सहयोगियों से निवेदन है कि वे अपना मोबाइल नम्बर पुनः मेरे ई-मेलः roopchandrashastri@gmail.com पर भेजने की कृपा करेंगे! कृपया अब मेरा यह मोबाइल नं. 09997996437 नोट करके सेव कर लीजिए! सादर, डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” |
शुक्रवार, 28 मई 2010
“नाइस-सुमन को सुझाव” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
"नाइस-सुमन" सुमन स्वयं तुम नाइस हो, नाइस लिखना अब छोड़ो! अपनी शब्दों की माला में, नया शब्द अब जोड़ो!! ऊब गये सब देख-देख यह, कोई नव्य प्रयोग करो! पीछा छोड़ो अब तो इसका, नया वाक्य उपयोग करो!! |
गुरुवार, 27 मई 2010
“रचनाएँ रचवाती हो!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
रोज-रोज सपनों में आकर, छवि अपनी दिखलाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! कभी हँस पर, कभी मोर पर, जीवन के हर एक मोड़ पर, भटके राही का माता तुम, पथ प्रशस्त कर जाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! मैं हूँ मूढ़, निपट अज्ञानी, नही जानता काव्य-कहानी, प्रतिदिन मेरे लिए मातु तुम, नव्य विषय को लाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! नही जानता पूजन-वन्दन, नही जानता हूँ आराधन, वर्णों की माला में माता, तुम मनके गुँथवाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! |
बुधवार, 26 मई 2010
“हृदय से नमन है हमारा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मंगलवार, 25 मई 2010
“600वाँ पुष्प-एक पुरानी रचना” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
तन्हाई के आलम में पल-पल, जब उनकी याद सताती है! दिन कट जाता जैसे-तैसे, पर रात बहुत तड़पाती है!! गुलशन से चुराया था जिनको, जुल्फों में सजाया था उनको, दो दिन की जुदाई भी हमसे, अब सहन नही हो पाती है! दिन कट जाता जैसे-तैसे, पर रात बहुत तड़पाती है!! और आँसू पीते रहते हैं. खारे अश्कों को पीने से भी, प्यास नही बुझ पाती है! दिन कट जाता जैसे-तैसे, पर रात बहुत तड़पाती है!! दिखलाई दी उनकी मूरत, उनकी यह मोहक छवि हमको, जीने की राह बताती है! दिन कट जाता जैसे-तैसे, पर रात बहुत तड़पाती है!! |
सोमवार, 24 मई 2010
“मौसम नैनीताल का” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
रविवार, 23 मई 2010
“जीवन जीने की आशा है” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है। जिसने जग में जीवन पाया, आया अदभुत् सा गान लिए। मुस्कान लिए अरमान लिए, जग में जीने की शान लिए। इस बालक से जब यह पूछा, बतलाओ तो जीवन क्या है? बोला दुनिया परिभाषा है , सारा जीवन एक भाषा है। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है । पोथी जग की पढ़ते-पढ़ते, अपने पथ पर बढ़ते-बढ़ते। इक नीड़ बसाया जब उसने, संसार सजाया जब उसने। तब मैंने उससे यह पूछा- बतलाओ तो जीवन क्या है? वह बोला जीवन आशा है, जीवन तो मधुर सुधा सा है , जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है । कुछ श्वेत-श्याम केशों वाले, अनुभव के परिवेशों वाले। अलमस्त पौढ़ और फलवाले, जीवन बगिया के रखवाले। बूढ़े बरगद से यह पूछा- बतलाओ तो जीवन क्या है? बोला जीवन अभिलाषा है, जीवन तो एक पिपासा है। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है । जब आनन दन्त-विहीन हुआ, तन सूख गया, बल क्षीण हुआ। जब पीत बन गयी हरियाली, मुरझाई जब डाली-डाली। फिर मैंने उससे यह पूछा- अब बतलाओ जीवन क्या है? तब उसने अपना मुँह खोला, और क्षीण भरे स्वर में बोला। जीवन तो बहुत निराशा है। जीवन तो बहुत जरा सा है।। जीवन इक खेल तमाशा है, जीवन जीने की आशा है।। |
शनिवार, 22 मई 2010
“उदास चेहरे सिसकते हुए हजार मिले” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
शुक्रवार, 21 मई 2010
“परछाँई की तासीर बदल जाती है” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आमन्त्रण में बल हो तो , तस्वीर बदल जाती है। पत्थर भी भगवान बनें, तकदीर बदल जाती है।। अपने अधरों को सीं कर, इक मौन निमन्त्रण दे दो, नयनों की भाषा से ही- मुझको आमन्त्रण दे दो, भँवरे की बिन गुंजन ही- तदवीर बदल जाती है। आमन्त्रण में बल हो तो , तस्वीर बदल जाती है।। सरसों फूली, टेसू फूले, फूल रहा है, सरस सुमन, होली के रंग में भीगेंगे, आशाओं के तन और मन, आलिंगन के सागर में- ताबीर बदल जाती है। आमन्त्रण में बल हो तो, तस्वीर बदल जाती है।। पगचिन्हों का ले अवलम्बन, आगे बढ़ता जाता हूँ , मन के दर्पण में राही की, सूरत पढता जाता हूँ, पल-पल में परछांई की, तासीर बदल जाती है। आमन्त्रण में बल हो तो, तस्वीर बदल जाती है।। |
“कर देंगे गुलशन वीराना” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
किया बहुत था प्यार हमेशा हमने सौतेलों को, किन्तु उन्होंने हमको भाई नहीं माना! -- लाड़-चाव से हाथ थाम कर चलना जिन्हें सिखाया था, जीवन में आगे बढ़ने का पथ जिनको दिखलाया था, हमने उन्हें अनुज माना था, किन्तु उन्होंने अपना कभी नही जाना! -- रची साजिशें गन्दी-गन्दी, हमने सब कुछ सहन किया, छोटा भाई समझकर हमने, अब तक सब कुछ वहन किया, किन्तु हमारे बल को अब तक, नही उन्होंने पहचाना! -- वो धमकी पर धमकी देते हमने नही उन्हें धमकाया, किन्तु उन्होंने उदारता का, नाजाइज है लाभ उठाया, अन्तिम चेतावनी हमारी, कर देंगे गुलशन वीराना! |
गुरुवार, 20 मई 2010
“जीवन एक पाठशाला है” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक)
ऐसा कोई शख़्श नही है, आसमान से जो आया हो! ऐसा कोई नक्श नही है, जिसने मन नही भरमाया हो!! जो कुछ भी जिसने सीखा है, दुनिया ने ही सिखलाया है, सजना और सवँरना सबको, दर्पण ने ही बतलाया है, ऐसा कोई अक्स नही है, जिसने नूर नही पाया हो! ऐसा कोई नक्श नही है, जिसने मन नही भरमाया हो!! जिसमें ज्ञान भरा है सारा, जीवन एक पाठशाला है, मोती-माणिक से रत्नों से, गुंथी हई मञ्जुलमाला है, ऐसा कोई दक्ष नही है, हुनर साथ में जो लाया हो! ऐसा कोई नक्श नही है, जिसने मन नही भरमाया हो!! धरा पटल पर लिखी हुई हैं, कदम-कदम पर नई इबारत, चन्दा सूरज को छूती हैं. अजब-गजब हैं कई इमारत, ऐसा कोई कक्ष नही है, जिसने शिल्प न अपनाया हो! ऐसा कोई नक्श नही है, जिसने मन नही भरमाया हो!! प्यार प्रीत की फुलवारी अब, समरक्षेत्र बन गई धरा है, आपाधापी मची हुई है, कहीं राम रहमान मरा है, ऐसा कोई लक्ष्य नही है, जिसने तीर नही खाया हो! ऐसा कोई नक्श नही है, जिसने मन नही भरमाया हो!! |
बुधवार, 19 मई 2010
“उम्र तमाम हो गई” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक)
पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, अब जीवन की शाम हो गई! पोथी जग की पढ़ते-पढ़ते, सारी उम्र तमाम हो गई!! जितना आगे कदम बढ़ाया, मंजिल ने उतना भटकाया, मन के मनके जपते-जपते, माला ही भगवान हो गई! पोथी जग की पढ़ते-पढ़ते, यों ही उम्र तमाम हो गई!! चिढ़ा रही मुँह आज नव्यता, सुबक-सुबक रो रही भव्यता, गीत-गज़ल को रचते-रचते, नैतिकता नीलाम हो गई! पोथी जग की पढ़ते-पढ़ते, यों ही उम्र तमाम हो गई!! स्वरलहरी अब मन्द हो गई, नई नस्ल स्वच्छन्द हो गई, घर की बातें रही न घर में, दुनियाभर में आम हो गई! पोथी जग की पढ़ते-पढ़ते, यों ही उम्र तमाम हो गई!! |
मंगलवार, 18 मई 2010
“न्याय करेगा कौन?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
वानर बैठा है कुर्सी पर, हुई बिल्लियाँ मौन! अन्धा है कानून हमारा, न्याय करेगा कौन? लुटी लाज है मिटी शर्म है, अनाचार में लिप्त कर्म है, बन्दीघर में बन्द धर्म है, रिश्वत का बाजार गर्म है, हुई योग्यता गौण! अन्धा है कानून हमारा, न्याय करेगा कौन? घोटालों में भी घोटाले, गोरों से बढ़कर हैं काले, अंग्रेजी को मस्त निवाले, हिन्दी को खाने के लाले, मैकाले हैं द्रोण! अन्धा है कानून हमारा, न्याय करेगा कौन? संसद में ज्यादातर गुण्डे, मन्दिर लूट रहे मुस्तण्डे, जात-धर्म के बढ़े वितण्डे, वार बन गये सण्डे-मण्डे, पनप रहे हैं डॉन! अन्धा है कानून हमारा, न्याय करेगा कौन? |
सोमवार, 17 मई 2010
“गरल ही गरल” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
अब हवाओं में फैला गरल ही गरल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में मैं गजल।। गन्ध से अब, सुमन की-सुमन है डरा भाई-चारे में, कितना जहर है भरा, वैद्य ऐसे कहाँ, जो पिलायें सुधा- अब तो हर मर्ज की है, दवा ही अजल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में मैं गजल।। धर्म की कैद में, कर्म है अध-मरा, हो गयी है प्रदूषित, हमारी धरा, पंक में गन्दगी तो हमेशा रही- अब तो दूषित हुआ जा रहा, गंग-जल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में मैं गजल।। आम, जामुन जले जा रहे, आग में, विष के पादप पनपने, लगे बाग मे, आज बारूद के, ढेर पर बैठ कर- ढूँढते हैं सभी, प्यार के चार पल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में मैं गजल।। आओ! शंकर, दयानन्द विष-पान को, शिव अभयदान दो, आज इन्सान को, जग की यह दुर्गति देखकर, हे प्रभो! नेत्र मेरे हुए जार हे हैं, सजल । क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में मैं गजल।। |
रविवार, 16 मई 2010
“मखमली लिबास” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मखमली लिबास आज तार-तार हो गया! मनुजता को दनुजता से आज प्यार हो गया!! सभ्यताएँ मर गईं हैं, आदमी के देश में, क्रूरताएँ बढ़ गईं हैं, आदमी के वेश में, मौत की फसल उगी हैं, जीना भार हो गया! मनुजता को दनुजता से आज प्यार हो गया!! भोले पंछियों के पंख, नोच रहा बाज है, गुम हुए अतीत को ही, खोज रहा आज है, शान्ति का कपोत बाज का शिकार हो गया! मनुजता को दनुजता से आज प्यार हो गया!! पर्वतों से बहने वाली धार, मैली हो गईं, महक देने वाली गन्ध भी, विषैली हो गई, जिस सुमन पे आस टिकी, वो ही खार हो गया! मनुजता को दनुजता से आज प्यार हो गया!! |
शनिवार, 15 मई 2010
“सूखे हुए छुहारे, उनको लुभा गये हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“प्रियवर अलबेला खत्री जी को समर्पित”
शुक्रवार, 14 मई 2010
“आदमी की हबस” (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
“एक पुरानी कविता”
जिन्दगी क्या मौत पर भी, अब हबस छाने लगी। आदमी को, आदमी की हबस ही खाने लगी।। हबस के कारण, यहाँ गणतन्त्रता भी सो गई। दासता सी आज, आजादी निबल को हो गई।। पालिकाओं और सदन में, हबस का ही शोर है। हबस के कारण, बशर लगने लगा अब चोर है।। उच्च-शिक्षा में अशिक्षा, हबस बन कर पल रही। न्याय में अन्याय की ही, होड़ जैसी चल रही।। हबस के साये में ही, शासन-प्रशासन चल रहा। हबस के साये में ही नर, नारियों को छल रहा।। डॉक्टरों, कारीगरों को, हबस ने छोड़ा नही। मास्टरों ने भी हबस से, अपना मुँह मोड़ा नही।। बस हबस के जोर पर ही, चल रही है चाकरी। कामचोरों की धरोहर, बन गयी अब नौकरी।। हबस के बल पर हलाहल, राजनीतिक घोलते। हबस की धुन में सुखनवर, पोल इनकी खोलते।। चल पड़े उद्योग -धन्धे, अब हबस की दौड़़ में। पा गये अल्लाह के बन्दे, कद हबस की होड़ में।। राजनीति अब, कलह और घात जैसी हो गयी। अब हबस शैतानियत की, आँत जैसी हो गयी।। |
गुरुवार, 13 मई 2010
“ढाई आखर नही व्याकरण चाहिए!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मोक्ष के लक्ष को मापने के लिए, जाने कितने जनम और मरण चाहिए । प्यार का राग आलापने के लिए, शुद्ध स्वर, ताल, लय, उपकरण चाहिए।। लैला-मजनूँ को गुजरे जमाना हुआ, किस्सा-ए हीर-रांझा पुराना हुआ, प्रीत की पोथियाँ बाँचने के लिए- ढाई आखर नही व्याकरण चाहिए । प्यार का राग आलापने के लिए, शुद्ध स्वर, ताल, लय, उपकरण चाहिए।। सन्त का पन्थ होता नही है सरल, पान करती सदा मीराबाई गरल, कृष्ण और राम को जानने के लिए- सूर-तुलसी सा ही आचरण चाहिए । प्यार का राग आलापने के लिए, शुद्ध स्वर, ताल, लय, उपकरण चाहिए।। सच्चा प्रेमी वही जिसको लागी लगन, अपनी परवाज में हो गया जो मगन, कण्टकाकीर्ण पथ नापने के लिए- शूल पर चलने वाले चरण चाहिए।। प्यार का राग आलापने के लिए, शुद्ध स्वर, ताल, लय, उपकरण चाहिए।। झर गये पात हों जिनके मधुमास में, लुटगये हो वसन जिनके विश्वास में, स्वप्न आशा भरे देखने के लिए- नयन में नींद का आवरण चाहिए ।। प्यार का राग आलापने के लिए, शुद्ध स्वर, ताल, लय, उपकरण चाहिए।। |
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