रोज-रोज सपनों में आकर, छवि अपनी दिखलाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! कभी हँस पर, कभी मोर पर, जीवन के हर एक मोड़ पर, भटके राही का माता तुम, पथ प्रशस्त कर जाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! मैं हूँ मूढ़, निपट अज्ञानी, नही जानता काव्य-कहानी, प्रतिदिन मेरे लिए मातु तुम, नव्य विषय को लाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! नही जानता पूजन-वन्दन, नही जानता हूँ आराधन, वर्णों की माला में माता, तुम मनके गुँथवाती हो! शब्दों का भण्डार दिखाकर, रचनाएँ रचवाती हो!! |
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गुरुवार, 27 मई 2010
“रचनाएँ रचवाती हो!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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bahut sundar rachna...
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत बढ़िया...ऐसे ही रचवाती रहें आप रचते रहें और हम बांचते रहें.
जवाब देंहटाएंbahut acchhi rachna.
जवाब देंहटाएंवाह जी बहुत अच्छी ओर सुंदर लगी आज की आप की रचना
जवाब देंहटाएंहम जो भी लिखते है सब इन्हीं की देन है..बहुत सुंदर रचना..बधाई शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत बढ़िया..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी ओर सुंदर लगी आज की आप की रचना..........
जवाब देंहटाएंबस यूँ ही सरस्वती माँ की कृपा बानी रहे और हम सब को बेहतरीन रचनाएँ पढने को मिलती रहें....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवाकई में आप पर मां सरस्वती की कृपा है..
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम !!
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंवाकई ! सुन्दर रचना इसे ही कहनी चाहिए
जवाब देंहटाएंआप पर माँ की कृपा है ,,,,और हमेशा रहेगी ,,,
aap par to maa ki poorna kripa hai.......sundar vandan.
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