इन सियासत के जंगलों में अब, लोग परचम नये बदलते हैं छोड़ उजड़े हुए दयारों को, इक नयी अंजुमन में चलते हैं कभी पत्तों के रँग में ढल जाते, कभी शाखों के रँग के हो जाते हम तो गिरगिट की तरह से अपने, रंग पल में यहाँ बदलते हैं कल जहाँ पर चखी मलाई थी, घूस सौदों में जम के खाई थी किन्तु जब से बदल गई बोतल, नई बोतल में जाम ढलते हैं हम मुसाफिर वही पुराने हैं, और मंजिल भी तो पुरानी है जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने को, नई राहों पे हम मचलते हैं “रूप” बदला है जमाने के लिए, केंचुली से खादी की, हम हैं विषधर वही पुराने से, देश में हम जहर उगलते हैं |
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गुरुवार, 17 मई 2012
"देश में हम जहर उगलते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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“रूप” बदला है जमाने के लिए, केंचुली की खादी से,
जवाब देंहटाएंहम हैं विषधर वही पुराने से, देश में हम जहर उगलते हैं,,
बहुत सुंदर रचना,..अच्छी प्रस्तुति,,,,,,
MY RECENT POSTफुहार....: बदनसीबी,.....
“रूप” बदला है जमाने के लिए, केंचुली से खादी की,
जवाब देंहटाएंहम हैं विषधर वही पुराने से, देश में हम जहर उगलते हैं......वाह: बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति..
बिलकुल सही कहा इन गिरगिटों के लिए आज के दौर में ये ही हो रहा है सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंSach farmaya.
जवाब देंहटाएंPlease see
http://mushayera.blogspot.com/2012/05/blog-post.html
कभी पत्तों के रँग में ढल जाते, कभी शाखों के रँग के हो जाते
जवाब देंहटाएंहम तो गिरगिट की तरह से अपने, रंग पल में यहाँ बदलते हैं…………सत्य वचन
बढिया है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
वाह बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंनेताओ की रंग बदलती नेताई
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन है.....
सुन्दर रचना:-)
वाह बहुत खूब ....राजनीति रंग लिए हुए लोग अपने आस पास भी मिल जायंगे
जवाब देंहटाएंवाह: बहुत सुन्दर..शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंगिरगिटान ने गिलट से, गिला किया है दूर |
जवाब देंहटाएंगिरहबाज गोते लगा, मजा करे भरपूर |
मजा करे भरपूर, चूर कलई करवा कर |
पद-मद चढ़ा शुरूर, चना थोथा बजवाकर |
पर कलई जिस रोज, खुलेगी रविकर तेरी |
*गिलगिल मार भागे, नहीं किंचित भी देरी |
*घड़ियाल / मगरमच्छ
पर कलई जिस रोज, खुलेगी रविकर तेरी |
जवाब देंहटाएं*गिलगिल मार भगाय, नहीं किंचित भी देरी |
*घड़ियाल / मगरमच्छ
अन्तः कहाँ बदलता है..
जवाब देंहटाएं“रूप” बदला है जमाने के लिए, केंचुली से खादी की,
जवाब देंहटाएंहम हैं विषधर वही पुराने से, देश में हम जहर उगलते हैं
प्रजा तंत्र की माता कुर्सी ,
कैसी है ये विमाता कुर्सी
साथ साल की माता कुर्सी .
अच्छी रचना है शाष्त्री जी व्यंग्य ही व्यंग्य .
“रूप” बदला है जमाने के लिए, केंचुली से खादी की,
जवाब देंहटाएंहम हैं विषधर वही पुराने से, देश में हम जहर उगलते हैं
बहुत सुन्दर..शुभकामनाएं..
prabaavshaali rachna guru ji......waakai mein zeher ugalte hain!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन !
जवाब देंहटाएंBicycle shops in north London
जवाब देंहटाएंExcellent Working Dear Friend Nice Information Share all over the world.God Bless You.
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