कालजयी साहित्य दे, चलते बने फकीर।
नहीं डॉक्टर बन सके, तुलसी, सूर-कबीर।१।
आगे जिसके नाम के, लगा डॉक्टर होय।
साहित्य के नाम पर, समझो उसे गिलोय।२।
छन्दशास्त्र का है नहीं, जिनको कुछ भी ज्ञान।
वो कविता के क्षेत्र में, पा जाते सम्मान।३।
लिखकर के आलेख को, अनुच्छेद में बाँट।
हींग लगे ना फिटकरी, कविता बने विराट।४।
भूल गये अपनी विधा, चमक-दमक में आज।
पड़ा विदेशी मोह में, आज प्रबुद्ध समाज।५।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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रविवार, 30 जून 2013
"दोहे-तुलसी, सूर-कबीर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 29 जून 2013
"चापलूस बैंगन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बैंगन का करना नहीं, कोई भी विश्वास।
माल-ताल जिस थाल में, जाते उसके पास।।
--
कुछ बैंगन होते यहाँ,
चतुर और चालाक।
छल से और फरेब से, खूब जमाते धाक।।
जब चुन कर के आये थे, तब थे बहुत कुरूप।
जब से कुर्सी मिल गयी, निखर गया है “रूप”।।
--
मनमोहन को मोहते, ऐसे ही चितचोर।
चापलूस बैंगन सदा, करते भाव विभोर।।
कल तक जो कंगाल थे, अब हैं माला-माल।
इनका घर भरता सदा, सूखा-बाढ़-अकाल।।
--
घोटालों के वास्ते, बनते हैं आयोग।
फलते इनके नाम पे, बैंगन के उद्योग।।
दाम-दण्ड औ’ भेद
से, लेते हैं ये काम।
छल की है इनकी तुला, कारा में है साम।।
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"आज बहुत है शोक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तप
करने के वास्ते, होते पावन धाम।
शंकर
के आगार में, मस्ती का क्या काम।।
हुई
भयंकर त्रासदी, क्रोधित हुए महेश।
नेत्र
तीसरा जब खुला, साफ हुआ परिवेश।।
अँगड़ाई
ली शैल ने, सब कुछ किया तबाह।
जो
इसमें हैं बच गये, वो भी रहे कराह।।
खाना-दाना
भी नहीं, नीड़ हो गये ध्वस्त।
शैलवासियों
का हुआ, आज हौसला पस्त।।
विदा
हुए जो जगत से, चले गये परलोक।
उनके
जाने का हमें, आज बहुत है शोक।।
छेड़-छाड़
जब-जब हुई, तब-तब बिगड़े ढंग।
कुदरत
करती सन्तुलन, दिखलाती निज रंग।।
सबके
ही सहयोग से, बनते
बिगड़े काज।
तन-मन-धन
से हम करें, मदद सभी की आज।।
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शुक्रवार, 28 जून 2013
"तितली आई! तितली आई!! "(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तितली आई! तितली आई!!
रंग-बिरंगी,
तितली आई।।
कितने सुन्दर पंख तुम्हारे।
आँखों को लगते हैं प्यारे।।
फूलों पर खुश हो मँडलाती।
अपनी धुन में हो इठलाती।।
जब आती बरसात सुहानी।
पुरवा चलती है मस्तानी।।
तब तुम अपनी चाल दिखाती।
लहरा कर उड़ती बलखाती।।
पर जल्दी ही थक जाती हो।
दीवारों पर सुस्ताती हो।।
बच्चों के मन को भाती हो।
इसीलिए पकड़ी जाती हो।।
|
गुरुवार, 27 जून 2013
"नेत्र शिव का खुल गया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज भी पसरे हुए,
बादल पहाड़ी गाँव में।
हो गये लाचार सारे,
अब पहाड़ी गाँव में।।
डर गयी है धूप सुख
की आज तो,
छा गयीं दुख की
बदलियाँ आज तो,
भूख से व्याकुल हुए
सब, अब पहाड़ी गाँव में।
हो गये लाचार सारे,
अब पहाड़ी गाँव में।।
फट रहे बादल दरकती
है धरा,
उफनती धाराओं ने
जीवन हरा,
कुछ नहीं बाकी बचा
है, अब पहाड़ी गाँव में।
हो गये लाचार सारे,
अब पहाड़ी गाँव में।।
पाप का बोझा हिमालय
क्यों सहे?
इसलिए घर-द्वार,
देवालय बहे,
ज़लज़ला-तूफान आया,
अब पहाड़ी गाँव में।
हो गये लाचार सारे,
अब पहाड़ी गाँव में।।
पर्वतों में जब
प्रदूषण घुल गया,
तीसरा तब नेत्र शिव
का खुल गया,
मौत ने डेरा जमाया,
अब पहाड़ी गाँव में।
हो गये लाचार सारे,
अब पहाड़ी गाँव में।।
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बुधवार, 26 जून 2013
"मेघ को कैसे बुलाऊँ?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कहर
बरसाने लगी हो, क्या तुम्हारा गान गाऊँ?
डर
गया इस “रूप” से, मैं मेघ को कैसे बुलाऊँ?
चित्र
अभिनव खींचते थे, जब घरा को सींचते थे,
किन्तु
अब तुम लीलते हो इस धरा को,
मर
गई मुनिया, किसे झूला झुलाऊँ?
डर
गया इस “रूप” से, मैं मेघ को कैसे बुलाऊँ?
ईश
की आराधना का, क्या यही फल साधना का,
चार
धामों पर तपस्या कौन करने जायेगा अब,
पर्वतों
पर जो हुआ, वो हादसा कैसे भुलाऊँ?
डर
गया इस “रूप” से, मैं मेघ को कैसे बुलाऊँ?
याचकों
का काल होगा, क्रूर काल-कराल होगा,
देवभू
पर किसलिए बारिश तुम्हारा कोप था,
घाव
उर के चीरकर कैसे दिखाऊँ?
डर
गया इस “रूप” से, मैं मेघ को कैसे बुलाऊँ?
जल
नहीं ये ज़लज़ला था, नीर ने सबको छला था,
ओ
निठुर तूने हमारी बस्तियाँ वीरान कर दीं,
शोक
के परिवेश में, कैसे यहाँ नग़मा सुनाऊँ?
डर
गया इस “रूप” से, मैं मेघ को कैसे बुलाऊँ?
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मंगलवार, 25 जून 2013
"और अब कितना चलूँगा...?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
थक गया हूँ और अब कितना चलूँगा।
अब हमेशा के लिए विश्राम लूँगा।।
वज्र सी अब है नहीं छाती मेरी,
मूँग सीने पर भला कब तक दलूँगा।
इक पका सा पात हूँ मैं डाल का,
ज़िन्दग़ी को और मैं कब तक छलूँगा।
अब नहीं बाकी बचीं कुछ कामनाएँ,
मैं नये परिवेश में कब तक पलूँगा।
अब लहू का वेग ऐसा है कहाँ,
मैं बदन पर तेल को कब तक मलूँगा।
खो गया है “रूप” भी अब तो सलोना,
किस तरह से आज साँचे में ढलूँगा।
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सोमवार, 24 जून 2013
"प्यार के दस दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ढाई
आखर में छिपा, दुनियाभर का मर्म।
प्यार
हमारा कर्म है, प्यार हमारा धर्म।१।
जो
नैसर्गिकरूप से, उमड़े वो है प्यार।
प्यार
नहीं है वासना, ये तो है उपहार।२।
जब
तक जीवित प्यार है, तब तक है संसार।
प्यार
बिना होता नहीं, जग में कोई उदार।३।
जीव-जन्तु
भी जानते, क्या होता है प्यार।
आ
जाते हैं पास में, सुनकर मधुर पुकार।४।
उपवन
सींचो प्यार से, मुस्कायेंगे फूल।
पौधों
को भी चाहिए, नेह-नीर अनुकूल।५।
विरह
तभी है जागता, जब होता है स्नेह।
विरह-मिलन
के मूल में, विद्यमान है नेह।६।
दुनियाभर
में प्यार की, बड़ी अनोखी रीत।
गैरों
को अपना करे, ऐसी होती प्रीत।७।
बन
जाते हैं प्यार से, सारे बिगड़े काम।
प्यार
और अनुराग तो, होता ललित-ललाम।८।
छिपा
हुआ है प्यार में, जीवन का विज्ञान।
प्यार
और मनुहार से, गुरू बाँटता ज्ञान।९।
छोटे
से इस शब्द की, महिमा अपरम्पार।
रोम-रोम
में जो रमा, वो होता है प्यार।१०।
|
"प्रलय हुई केदारनाथ में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शिव ने खोला नेत्र तीसरा, प्रलय
हुई केदारनाथ में।
माया अपरम्पार प्रभू की, मानव के
कुछ नहीं हाथ में।।
अचल-सन्तरी पर्वत पर, जब-जब हमने थी
छेड़-छाड़ की,
कुदरत को ये रास न आया, उसने ये रचना
उजाड़ दी,
कंकरीट का सारा जंगल, हुआ समाहित जलप्रपात
में।
माया अपरम्पार प्रभू की, मानव के
कुछ नहीं हाथ में।।
जितना भी कूड़ा-कचरा था, उसका पल
में किया सफाया,
भोले बाबा ने मन्दिर का, हमको आदिस्वरूप
दिखाया,
पापकर्मियों के कारण ही, सज्जन भी बह
गये साथ में।
माया अपरम्पार प्रभू की, मानव के
कुछ नहीं हाथ में।।
धाम साधना का होता है, नहीं मौज-मस्ती
का आलय,
वन्दन-पूजन-आराधन का, आलय होता है देवालय,
लेकिन भूल गया था मानव, लोभ-मोह के
क्षणिक स्वार्थ में।
माया अपरम्पार प्रभू की, मानव के
कुछ नहीं हाथ में।।
हुए हताहत जितने परिजन, उनको
श्रद्धासुमन समर्पित,
गंगा मइया करना तर्पण, स्वजन किये
हैं तुमको अर्पित,
हे कैलाशपति-शिवशम्भू! रखना अपनी कायनात
में।
माया अपरम्पार
प्रभू की, मानव के कुछ नहीं हाथ में।। |
रविवार, 23 जून 2013
"मेरे छोटे पुत्र विनीत का जन्मदिन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 22 जून 2013
"आभासी दुनिया की मेरी भतीजी शशि पुरवार का जन्मदिन .." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
इस आभासी संसार में
आज मेरी भतीजी और चर्चा मंच की चर्चाकार
"शशि पुरवार" का जन्मदिन है।
उपहारस्वरूप कुछ शब्द सजाये हैं!
जन्मदिन पुरवार “शशि” का आज आया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
मन नवल उल्लास लेकर, नृत्य आँगन में करें,
धान्य-धन परिपूर्ण होवे, जगनियन्ता सुख भरें,
आपके सिर पर रहे, सौभाग्य का अनमोल साया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
शशि तुम्हारी रौशनी से, हो रहा पुलकित हो गगन,
जब कली खिलती, तभी खुशबू लुटाता है चमन,
जगमगाते तारकों ने, आज मंगलगान गाया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
बाँटता खुशियाँ सदा, आभास का संसार है,
घन खुशी के तब बरसते, जब सरसता प्यार है,
डोर नातों की बँधी तो, नेह ने अधिकार पाया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
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"लिखूँ कैसे गज़ल को अब" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
किये थे कर्म हमने जो, उन्हीं का भोगते हैं फल
कहीं है मार सूखे की, कहीं चारों तरफ है जल
गये जो चार धामों को, विपत्ति में घिरे वो सब
हताहत हो गये कितने, नजर आता नहीं सम्बल
बहा सैलाब आँसू का, लिखूँ कैसे गज़ल को अब,
न कोई भाव आता है, सुमन भी आज है बेकल
सियासत ने बिगाड़ा सन्तुलन, नदियों-पहाड़ों का
तभी तो देवताओं ने, दिखाया शक्ति का ये बल
रौद्र है “रूप” नदियों का, करें
अब आचमन कैसे
भगीरथ तेरी गंगा का, नहीं है नीर अब निर्मल |
गुरुवार, 20 जून 2013
"घर में पानी, बाहर पानी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 18 जून 2013
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