मैं इस खुदगर्ज़ दुनिया में, खड़ा होने से डरता हूँ
दिया माँ ने जनम मुझको, वो इतना प्यार करती है
मैं नन्हा दीप माटी का, घड़ा होने से डरता हूँ
कहीं हैं जात के मसले, कहीं मज़हब के झगड़े हैं
मैं इन कुनबे-कबीलों का, धड़ा होने से डरता हूँ
कमल तालाब का हूँ मैं, हमेशा मुस्कराता हूँ
मगर खारे समन्दर में, पड़ा होने से डरता हूँ
मैं हूँ इन्सानियत के “रूप” में इक बीज अदना सा
चमन की क्यारियों में अब, गड़ा होने से डरता हूँ
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शनिवार, 1 जून 2013
"बड़ा होने से डरता हूँ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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आज के सन्दर्भ में सार्थक सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंसच लिखा आपने
आज-कल के बच्चे
बड़े न हों
और हों तो
अकल वाले हों
ताकि वो हमें
अपने साथ रखें
वृद्धाश्रम की राह न दिखाएँ
सादर
बहुत उम्दा,सार्थक प्रस्तुति,,
जवाब देंहटाएंआदरणीयवर इस सुन्दर रचना के लिए आपका सादर आभार !!
जवाब देंहटाएंबड़ों की देख कर हालत, बड़ा होने से डरता हूँ
जवाब देंहटाएंबढ़िया ! बहुत बढ़िया
बहुत सुंदर.... आनंद ...
जवाब देंहटाएंsundar sarthak aur umda prastuti
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर....बढ़िया प्रस्तुति..आभार
जवाब देंहटाएंbahut sundar komal bhavon ki abhivyakti .aabhar
जवाब देंहटाएंसुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति आदरणीय .....सादर !
जवाब देंहटाएंsundar bangi !
जवाब देंहटाएंBahut khubsoorat dhang se sachchaai samete shaandaar Prastuti Shashtri ji
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया. सुन्दर.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति
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