किये थे कर्म हमने जो, उन्हीं का भोगते हैं फल
कहीं है मार सूखे की, कहीं चारों तरफ है जल
गये जो चार धामों को, विपत्ति में घिरे वो सब
हताहत हो गये कितने, नजर आता नहीं सम्बल
बहा सैलाब आँसू का, लिखूँ कैसे गज़ल को अब,
न कोई भाव आता है, सुमन भी आज है बेकल
सियासत ने बिगाड़ा सन्तुलन, नदियों-पहाड़ों का
तभी तो देवताओं ने, दिखाया शक्ति का ये बल
रौद्र है “रूप” नदियों का, करें
अब आचमन कैसे
भगीरथ तेरी गंगा का, नहीं है नीर अब निर्मल |
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शनिवार, 22 जून 2013
"लिखूँ कैसे गज़ल को अब" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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उतराखंड पर आई विपदा को भुलाया नही जा सकता,हम चाहे कुछ भी कर लें प्रकृति के आगे लाचार हैं। बहुत ही भावपूर्ण मार्मिक प्रस्तुतिकरण,ईश्वर की कृपा बनी रहे।
जवाब देंहटाएंSab Insaano kaa hee kiya dhara hai, Achchhi prastuti !
जवाब देंहटाएंआपकी यह उत्कृष्ट रचना कल दिनांक 22 जून 2013 को http://blogprasaran.blogspot.in/ ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है , कृपया पधारें व औरों को भी पढ़े...
जवाब देंहटाएं सच्चाई को शब्दों में बखूबी उतारा है आपने . . .बेहतरीन अभिव्यक्ति . आभार गरजकर ऐसे आदिल ने ,हमें गुस्सा दिखाया है . आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
जवाब देंहटाएंजो बोया बही काटना पडना है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सच मुच भयावह
जवाब देंहटाएंकाश समय रहते संभल जाते
इस आपदा के लिए हम ही जिम्मेवार हैं ... इन्सान की भूख जिम्मेवार है ...
जवाब देंहटाएंकितना पीड़ादायक दिखता है हर दृश्य।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंसटीक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत भाव पूर्ण मार्मिक प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना है---परन्तु यहाँ भी हम सियासत को क्यों कोस रहे हैं( यहीं तो मात खा रहा है हर इंसान जो गलती है वह तेरी )....गलती व पाप तो सभी इंसान के हैं ....हम आप भी इसमें सम्मिलित हैं...
जवाब देंहटाएंनीर नहीं अब निर्मल...सही कहा आपने
जवाब देंहटाएं