कितना है नादान मनुज, यह चक्र समझ नही पाया।
आशाएँ और अभिलाषाएँ, बढ़ती जाती प्रति-पल हैं।।
रंग-बिरंगे सुमन खिलेंगे, घर, आंगन, उपवन में।।
नाती-पोतों की किलकारी, जीवन में लाया है।।
वाणी पर अंकुश रखना, टोका-टाकी मत करना।।
भावी पीढ़ी को उनका, सुखमय जीवन जीने देना।।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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मंगलवार, 30 जून 2009
‘‘भावी पीढ़ी को उनका, सुखमय जीवन जीने देना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सोमवार, 29 जून 2009
इसी का नाम दुनिया है। (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)
हर रोज
सुबह आयेगी,
शाम ढलेगी,
रात जायेगी
और
फिर सुबह होगी,
पर
इन्तजार
खत्म न होगा।
संसार की
यही तो नियति है
और
शायद
इसी का नाम
दुनिया है।
रविवार, 28 जून 2009
‘‘फ्रिज’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘बादल आये हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 27 जून 2009
‘‘आशा के दीप जलाओ तो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जलने को परवाने आतुर, आशा के दीप जलाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधुवन में महक समाई है, कलियों में यौवन सा छाया, मस्ती में दीवाना होकर, भँवरा उपवन में मँडराया, वह झूम रहा होकर व्याकुल, तुम पंखुरिया फैलाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधुमक्खी भीने-भीने स्वर में, सुन्दर गीत सुनाती है, सुन्दर पंखों वाली तितली भी, आस लगाए आती है, सूरज की किरणें कहती है, कलियों खुलकर मुस्काओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधु का कण भर इनको मत दो, पर आमन्त्रण तो दे दो, पहचानापन विस्मृत करके, इक मौन-निमन्त्रण तो दे दो, काली घनघोर घटाओं में, बिजली बन कर आ जाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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‘‘काले अक्षर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
काले अक्षर कभी-कभी, तो बहुत सताते है। कभी-कभी सुख का, सन्देशा भी दे जाते हैं।।
कभी बेरुखी कभी प्यार से, मीठी बातें करता है।।
जख्म जिन्दगी में दे जाता, अक्षर बड़ा अनूप।।
किसी-किसी का तो, अभिनव संसार खड़ा है।।
केवल समय दिखा सकता है, सीधी-सच्ची राहें।।
इसी लिए तो कहते हैं जी काला अक्षर भैंस बराबर।। |
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‘‘गुटका फाँक रहे हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बुधवार, 24 जून 2009
‘‘शत्रुता से भरे फासले कम करो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
(मुखड़े के लिए श्री यू.आर.मीत का आभार) |
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मंगलवार, 23 जून 2009
‘‘दिल’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
प्यार पाते ही यह तो मटक जायेगा।।
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सोमवार, 22 जून 2009
‘‘उदगार’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
(चित्र गूगल से साभार)
पहले मैं विद्यालय में,
रिक्शा से आता-जाता था।
(चित्र गूगल से साभार)
आगे हैं दो काले टायर,
रविवार, 21 जून 2009
‘‘वफादार है बड़े काम का’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज अपने प्यारे कुत्ते "टॉम" पर एक बाल कविता लिखी तो मेरी पोती "फिरंगी" पर भी एक बाल-कविता लिखने की जिद करने लगी। उसी की फरमाइश पर प्रस्तुत है यह बाल-कविता- यह कुत्ता है बड़ा शिकारी। बिल्ली का दुश्मन है भारी।।
भौंक-भौंक कर उसे भगाता।।
बॉल पकड़ कर जल्दी लाता।।
बच्चों को अच्छा लगता है।।
इसका नाम फिरंगी प्यारा।।
भूरी सी हैं और नीली हैं।।
साथ-साथ चल पड़ता झट से।।
सुवह शाम इसको टहलाना।।
वफादार है बड़े काम का।। |
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‘‘मेरा कुत्ता बड़ा निराला’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
लम्बे-लम्बे कानों वाला। मेरा कुत्ता बड़ा निराला।।
नही किसी से यह डरता है।।
सब कहते हैं इसको टाम।।
सेव, टमाटर चट कर जाता।।
भौं-भौं कर आवाज लगाता।।
घर भर का यह राज-दुलारा।। |
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शनिवार, 20 जून 2009
‘‘डस्टर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पर डस्टर कष्ट बहुत देता है।
पढ़ना तो अच्छा लगता,
पर लिखना कष्ट बहुत देता है।।
दीदी जी तो अच्छी लगतीं,
पर वो काम बहुत देती हैं।
छोटी से छोटी गल्ती पर,
डस्टर कई जमा देतीं हैं।।
कोई तो उनसे यह पूछे,
क्या डस्टर का काम यही है?
कोमल हाथों पर चटकाना,
क्या इसका अपमान नही है??
दीदी हम छोटे बच्चे हैं,
कुछ तो रहम दिखाओ ना।
डाँटो भी, फटकारो भी,
पर हमको मार लगाओ ना।।
’’खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में’’ (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पुरानी डायरी से
मन हुआ अनमना बात ही बात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
दिल की दौलत लुटाई बड़े चाव से,
उसने लूटा खजाना मुलाकात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
जाल पर जाल वो फेंकते ही गये,
कितना जादू था उनके खयालात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
देर से ही सही सच उजागर हुआ,
सिर्फ छल-छद्म था उनकी सौगात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
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शुक्रवार, 19 जून 2009
‘‘नानी का घर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जून महीना आता है और, जब गर्मी बढ़ जाती है।
नानी जी के घर की मुझको, बेहद याद सताती है।।
तब मैं मम्मी से कहती हूँ, नानी के घर जाना है।
नानी के प्यारे हाथों से, हलवा मुझको खाना है।।
कथा-कहानी मम्मी तुम तो, मुझको नही सुनाती हो।
नानी जैसे मीठे स्वर में, गीत कभी नही गाती हो।।
मेरी नानी मेरे संग में, दिन भर खेल खेलतीं है।
मेरी नादानी-शैतानी, हँस-हँस रोज झेलतीं हैं।।
मास-दिवस गिनती हैं नानी, आस लगाये रहती हैं।
रानी-बिटिया को ले आओ, वो नाना से कहती हैं।।
रोज-रोज छोटे मामा जी, आम ढेर से लाते हैं।
उन्हें काटकर प्यारे नाना, हमको खूब खिलाते हैं।।
मस्ती-करना, खेल-खेलना, करना सारा दिन आराम।
अपने घर में बहुत काम है, नानी का घर सुख का धाम।।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
गुरुवार, 18 जून 2009
‘‘बलिदान-दिवस पर विशेष’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटि तानी थी,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी।
नाना, धुंधुंपंत, ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
‘‘अमलताश के झूमर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बुधवार, 17 जून 2009
‘‘वर्षा ऋतु’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बिजली नभ में चमक रही है, अपनी धुन में दमक रही है,
http://uchcharandangal.blogspot.com/
http://powerofhydro.blogspot.com/
मंगलवार, 16 जून 2009
"गैस सिलेण्डर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गैस सिलेण्डर कितना प्यारा।
मम्मी की आँखों का तारा।।
रेगूलेटर अच्छा लाना।सही ढंग से इसे लगाना।।
गैस सिलेण्डर है वरदान।
यह रसोई-घर की है शान।।
दूघ पकाओ, चाय बनाओ।
मनचाहे पकवान बनाओ।।
बिजली अगर नही है घर में।
यह प्रकाश देता पल भर में।।
बाथरूम में इसे लगाओ।गर्म-गर्म पानी से न्हाओ।।
बीत गया है वक्त पुराना।
अब आया है नया जमाना।।
कण्डे, लकड़ी अब नही लाना।
बड़ा सहज है गैस जलाना।।
किन्तु सुरक्षा को अपनाना।
इसे कार में नही लगाना।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)सोमवार, 15 जून 2009
‘‘ऐ सुमन! तुम क्यों सुमन हो?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बिटिया की महिमा अनन्त है,
किलकारी की गूँज सुनाती, परिवारों को यही बसाती। नारी नर की खान रही है, जन-जन का अरमान रही है। बिटिया की महिमा अनन्त है, इससे ही घर में बसन्त है। |
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रविवार, 14 जून 2009
‘‘प्यारी प्राची’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सिर पर पल्लू लाने की।
अभी उम्र है गुड्डे-गुड़ियों के संग,
समय बिताने की।।
मम्मी-पापा तुम्हें देख कर,
मन ही मन हर्षाते हैं।
जब वो नन्ही सी बेटी की,
छवि आखों में पाते है।।
(चित्र गूगल से साभार)
जब आयेगा समय सुहाना,
देंगे हम उपहार तुम्हें।
तन मन धन से सब सौगातें,
देंगे बारम्बार तुम्हें।।
दादी-बाबा की प्यारी,
तुम सबकी राजदुलारी हो।
घर आंगन की बगिया की,
तुम मनमोहक फुलवारी हो।।
सबकी आँखों में बसती हो,
इस घर की तुम दुनिया हो।
प्राची तुम हो बड़ी सलोनी,
इक प्यारी सी मुनिया हो।।
ब्लॉगर्स मित्रों!
गद्य पढ़ने के लिए मेरे निम्न चिट्ठे भी देखें-
http://uchcharandsngal।blogspot.com/
http://powerofhydro।blogspot.com/
शनिवार, 13 जून 2009
मच्छर-दानी (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
तब मच्छर हैं बहुत सताते।
शुक्रवार, 12 जून 2009
‘‘चलना संभल-संभल कर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
एक पुरानी कविता
मौसम ने करवट बदली है, ली समीर ने अँगड़ाई।
कविता के उपवन-कानन की, हैं कलियाँ मुस्काई।। जालिम दुनिया ने तो दिल को, समझा एक खिलौना। खा-पीकर के फेंक दिया है, समझ चाट का दौना।। गागर के मुख पर अमृत है, भीतर भरा हलाहल है। नदियों के गीले तटबन्धों पर, फैला होता दलदल है।। भँवर जाल में फँस मत जाना, सागर के समतल तल पर। देख-भाल कर कदम बढ़ाना, चलना संभल-संभल कर।। |
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गुरुवार, 11 जून 2009
‘‘गंगा-मइया बहुत महान’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बहता जिसमें पावन जल है।।
जन-जन जिससे है सुख पाता।
वो कहलाती गंगा माता।।
पर्वत से निकली लघु धारा।
मैदानों में रूप सवाँरा।।
बम-बम भोले की पुकार है।शिव की नगरी हरिद्वार है।।
जो हर की पौढ़ी पर न्हाते।
उनके पाप सभी धुल जाते।।
कष्टों को हर लेने वाली।
यह सबको सुख देने वाली।।
काशी की महिमा अनूप है।
गंगा का मोहक स्वरूप है।।
घाटों की शोभा है न्यारी।
जय-जय-जय भोले भण्डारी।।
हरिद्वार, उज्जैन, प्रयाग।
नासिक के जागे हैं भाग।।
बारह वर्ष बाद जो आता।
महाकुम्भ है वो कहलाता।।
भक्त बहुत इसमें जाते हैं।
साधू-सन्यासी आते हैं।।
जन-मन को हर्षाने वाला।
श्रद्धा का यह पर्व निराला।।
तीनों सरिताओं का संगम।शुद्ध जहाँ होता है तन-मन।।
जप-तप, दान-पुण्य का घर है।
यह प्रयाग प्राचीन नगर है।।
हरित-क्रांति की तुम हो खान।
गंगा-मइया बहुत महान।।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
बुधवार, 10 जून 2009
‘‘कुछ मित्रों की टिप्पणियों का उत्तर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
नही जानता कैसे बन जाते हैं, मुझसे गीत-गजल। जाने कब मन के नभ पर, छा जाते हैं गहरे बादल।। ना कोई कापी या कागज, ना ही कलम चलाता हूँ। खोल पेज-मेकर को, हिन्दी टंकण करता जाता हूँ।। देख छटा बारिश की, अंगुलियाँ चलने लगतीं है। कम्प्यूटर देखा तो उस पर, शब्द उगलने लगतीं हैं।। नजर पड़ी टीवी पर तो, अपनी हरकत कर जातीं हैं। चिड़िया का स्वर सुन कर, अपने करतब को दिखलातीं है।। बस्ता और पेंसिल पर, उल्लू बन क्या-क्या रचतीं हैं। सेल-फोन, तितली-रानी, इनके नयनों में सजतीं है।। कौआ, भँवरा और पतंग भी इनको बहुत सुहाती हैं। नेता जी की टोपी, श्यामल गैया, बहुत लुभाती है।। सावन का झूला हो, चाहे होली की हों मस्त फुहारें। जाने कैसे दिखलातीं ये, बाल-गीत के मस्त नजारे।। मैं तो केवल जाल-जगत पर, इन्हें लगाता जाता हूँ। क्या कुछ लिख मारा है, मुड़कर नही देख ये पाता हूँ।। जिन देवी की कृपा हुई है, उनका करता हूँ वन्दन। सरस्वती माता का करता, कोटि-कोटि हूँ अभिनन्दन।। |
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‘‘तरु देने लगता मीठे फल है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)
इन्सानों की फितरत देखो, काट रहे इनके तन हैं।।
चारों ओर साल के जंगल, लगते कितने शानदार हैं।
सीधे-सादे नभ को छूते, वृक्ष बड़े ही जानदार हैं।।
इक टिड्ढा पत्तों पर बैठा, इनके रस को चाट रहा है।
कुतर-कुतर कर बेरहमी से, डण्ठल-पत्ती काट रहा है।।
किसी सिरफिरे ने इस वन में आग अचानक सुलगा दी है।
जिसने पेड़ों की कोमल-कोमल शाखाएँ झुलसा दी हैं।।
पानी बरसा शान्त हो गयी ज्वाल, शेष रह गयी निशानी।
मिटा हृदय का शूल, वनों मे पलने-फलने लगी जवानी।।
धरती में सोया नन्हा सा बीज, अंकुरित हो आया है।
फूटे उसमें से कुछ कल्ले, पौधा बन जीवन पाया है।।
कुछ वर्षों के बाद यही यौवन को पाकर फूल गया है।
अग्नि की झुलसाने वाली लपटों को यह भूल गया है।।
कुदरत की अन्तर्शक्ति का रहता नियम अटल है।
तन झुलसा कर भी तरु देने लगता मीठे फल है।।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
मंगलवार, 9 जून 2009
‘‘टेली-विजन’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
खोल रहा दुनिया की पोल।।
इसमें चैनल एक हजार।
इसके बिन जीवन बेकार।।
कितना प्यारा और सलोना।
बच्चों का ये एक खिलौना।।
समाचार इसमें हैं आते।
कार्टून हैं खूब हँसाते।।
गीत और संगीत सुनाता।
पल-पल की घटना बतलाता।।
मनचाहा चैनल पा जाओ।।
नृत्य सिखाता, मन बहलाता।
नई-नई कारों को देखो।
जगमग त्योहारों को देखो।।
नये-नये देखो परिधान।
टेली-विजन बहुत महान।।
(रिमोट, कार और त्योहार के चित्र गूगल सर्च से साभार)
सोमवार, 8 जून 2009
‘‘इण्टर-नेट’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
करता है हर बात उजागर।
इण्टर-नेट ज्ञान का सागर।।
कहती है प्यारी सी मुनिया।
लन्दन हो या हो अमरीका।
गली, शहर हर गाँव देख लो।
जग भर की जितनी हैं भाषा।
चाहे शोख नजारे देखो।
अन्तर्-जाल बड़े मनवाला।
छोटा सा कम्प्यूटर लेलो।
फिर इससे जी भरकर खेलो।।
आओ इण्टर-नेट पढ़ाएँ।
मौज मनाएँ, ज्ञान बढ़ाएँ।।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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