इन्सानों की फितरत देखो, काट रहे इनके तन हैं।।
चारों ओर साल के जंगल, लगते कितने शानदार हैं।
सीधे-सादे नभ को छूते, वृक्ष बड़े ही जानदार हैं।।
इक टिड्ढा पत्तों पर बैठा, इनके रस को चाट रहा है।
कुतर-कुतर कर बेरहमी से, डण्ठल-पत्ती काट रहा है।।
किसी सिरफिरे ने इस वन में आग अचानक सुलगा दी है।
जिसने पेड़ों की कोमल-कोमल शाखाएँ झुलसा दी हैं।।
पानी बरसा शान्त हो गयी ज्वाल, शेष रह गयी निशानी।
मिटा हृदय का शूल, वनों मे पलने-फलने लगी जवानी।।
धरती में सोया नन्हा सा बीज, अंकुरित हो आया है।
फूटे उसमें से कुछ कल्ले, पौधा बन जीवन पाया है।।
कुछ वर्षों के बाद यही यौवन को पाकर फूल गया है।
अग्नि की झुलसाने वाली लपटों को यह भूल गया है।।
कुदरत की अन्तर्शक्ति का रहता नियम अटल है।
तन झुलसा कर भी तरु देने लगता मीठे फल है।।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
मंयक जी आप्की लेखनी को नमन है बच्चों के लिये बहुत सुन्दर गीत रच रहे हैं बहुत बहुत बधाइ
जवाब देंहटाएंwww.veerbahuti.blogspot.com
कविता के साथ इतनी अच्छी तस्वीरे.आपने बहुत मेहनत की .
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता के साथ सुन्दर चित्र भी............. कमाल है सर ............ नमन आपकी कलम को
जवाब देंहटाएंक्या बात है शास्त्री जी, लगता है बच्चों को दीवाना बना के छोडेंगे.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना... आभार
जवाब देंहटाएंbahut hi shandar rachna likhi hai .......kitna sach likhte hain aap............aapki lekhni ko naman
जवाब देंहटाएंbahut hi acchi rachna.. bacche baato baato main seekh rahe hai sabkuch aapki rachnao se...!
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