देख-देख मन हुआ विभोर। नाच रहा जंगल में मोर।। चंचल-चपला चमक रही है, बादल गरज रहा घनघोर। नाच रहा जंगल में मोर।। रूप सलोना देख मोरनी, के मन में है हर्ष-हिलोर। नाच रहा जंगल में मोर।। नीलकण्ठ का नृत्य हो रहा, पुरवा मचा रही है शोर। नाच रहा जंगल में मोर।। रंग-बिरंगा और मनभावन, कितना अच्छा लगता मोर। नाच रहा जंगल में मोर।। |
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मंगलवार, 2 मार्च 2010
“नाच रहा जंगल में मोर” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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nice
जवाब देंहटाएंWaah behad khubsurat...itani acchi lagi yah kavita ki mera man bhi vibhor ho gaya!
जवाब देंहटाएंSadar
बहुत सही शाश्त्रीजी.
जवाब देंहटाएंरामराम.
bahut sundar rachana ....
जवाब देंहटाएंvaah sir jee vaah.
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना के संग सुंदर चित्र
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
ati sundar chitran...
जवाब देंहटाएंजितनी ख़ूबसूरत मोर है उतनी ही सुन्दर आपकी रचना है!
जवाब देंहटाएंsach mein jungle mein mor nach raha hai .....ahut hi manmohak chitra ke sath manbhavni kavita.
जवाब देंहटाएंजंगल में नाचा मोर, देख पर नभ से सका मयंक।
जवाब देंहटाएंउसी के वर्णन से जानकर हम भी हुए निशंक।।