जल रहा स्वेद है चरागों में, पल रहा भेद है समाजों में! सूखती जा रही सजल सरिता, खल रहा छेद है रिवाजों में! |
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बढ़िया मुत्तक शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंव्यभिचारी आचार बन गया ,
दरार आ गई आगाजो में !
वाल्मिकी रामायण लिख रहे,
फर्क आ गया अंदाजो में !!
truti sudhar : vybhicharee ko kripya vybhichaar padhe !
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ये मुक्तक तो मोती के समान है जो गहरे सागर से निकला हो...सुन्दर
जवाब देंहटाएंहम सोचते रहे...सोचते रहे...सोचते रहे..पढकर.......
जवाब देंहटाएं....
यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
कमाल का मुक्तक शास्त्री जी ... बहुत दिनो बाहर रहा तो आपको नियमित नही पढ़ पाया ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक मुक्तक. बधाई.
जवाब देंहटाएंसुन्दर मुक्तक
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
वाह …………………बहुत ही सुन्दर मुक्तक्………………काफ़ी गूढ बात कह दी चंद पंक्तियो मे ही।
जवाब देंहटाएंखल रहा छेद है रिवाजों में!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव, कम शब्दों में दिल को छू लेने की कला कोई आपसे सीखे
बधाई