विंडो लाइव राइटर में काम करते-करते कुछ पोस्ट उड़ गई थीं! आशा है आपका प्यार फिर से मिलेगा! |
सुख-चैन छीनने को, गद्दार आ गये हैं। टुकड़ों को बीनने को, मक्कार आ गये हैं।। पाये नहीं जिन्होंने, घर में नरम-निवाले, खुद को किया उन्होंने, परदेश के हवाले, फूलों को बींधने को, कुछ खार आ गये हैं। टुकड़ों को बीनने को, मक्कार आ गये हैं।। अपने वजूद को भी, नीलाम कर दिया है, माता के दूध को भी, बदनाम कर दिया है, गंगा उलीचने को, बद-ख्वार आ गये हैं। टुकड़ों को बीनने को, मक्कार आ गये हैं।। स्यारों ने सिंह-शावक, कायर समझ लिए है, राणा-शिवा के वंशज, पामर समझ लिए हैं, सागर को लीलने को, बीमार आ गए हैं। टुकड़ों को बीनने को, मक्कार आ गये हैं।। |
बच्चों का ये है विद्यालय। विद्याओं का ये है आलय।। कितना सुन्दर सजा चमन है। रंग-बिरंगे यहाँ सुमन हैं।। कोरे कागज जैसे मन है। चहक रहा कानन-उपवन है।। हर बालक अमृत की गागर। भरा हुआ गागर में सागर।। रूप भिन्न हैं, वेश एक है। पन्थ भिन्न, परिवेश एक है।। विद्या जीवन का आधार। पढ़ना बालक का अधिकार।। श्रम से मंजिल मिल जाती है। शिक्षा तप से ही आती है।। सामाजिकता अपनाना है। प्रतिदिन विद्यालय जाना है।। |
नही कार-बँगला, न धन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। दिया एक मन और तन भी दिया है, दशम् द्वार वाला भवन भी दिया है, मैं अपने चमन में अमन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। उगे सुख का सूरज, धरा जगमगाये, फसल खेत में रात-दिन लहलहाये, समय से जो बरसे वो घन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। बजे शंख-घण्टे, नमाजें अदा हों, वतन के मुसाफिर वतन पर फिदा हों, मैं गीतों की गंग-ओ-जमुन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। कलम के पुजारी, कहीं सो न जाना, अलख एकता की हमेशा जगाना, अडिगता-सजगता का प्रण चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ। |
धनहीन हूँ भिखारी, मैं दान माँगता हूँ। झोली पसारकर माँ! मैं ज्ञान माँगता हूँ।। दुनिया की भीड़ से मैं, बच करके चल रहा हूँ, माँ तेरे रजकणों को, माथे पे मल रहा हूँ, निष्प्राण अक्षरों में, मैं प्राण माँगता हूँ। झोली पसारकर माँ! मैं ज्ञान माँगता हूँ।। अज्ञान का अन्धेरा, छँट जाये मन से मेरे, विज्ञान का सवेरा, घट जाये मन में मेरे, मैं शीश को नवाकर, प्रज्ञान माँगता हूँ। झोली पसारकर माँ! मैं ज्ञान माँगता हूँ।। तुलसी, कबीर जैसी, मैं भक्ति माँगता हूँ, मीरा व सूर सी माँ! आसक्ति माँगता हूँ, छन्दों-पदों का माता! वरदान माँगता हूँ। झोली पसारकर माँ! मैं ज्ञान माँगता हूँ।। |
स्नेह से बढ़ता हमेशा स्नेह है! प्यार का आधार केवल नेह है!! शुष्क दीपक स्नेह बिन जलता नही, चिकनाई बिन पुर्जा कोई चलता नही, आत्मा के बिन अधूरी देह है! प्यार का आधार केवल नेह है!! पीढ़ियाँ हैं आज भूखी प्यार की, स्नेह ही तो डोर है परिवार की, नेह से ही खिलखिलाते गेह हैं! प्यार का आधार केवल नेह है!! नेह से बनते मधुर सम्बन्ध हैं, कुटिलता से टूटते अनुबन्ध हैं, मधुरता सबसे बड़ा अवलेह है! प्यार का आधार केवल नेह है!! नफरतों के नष्ट अंकुर को करो, हसरतों में प्यार का पानी भरो, दोस्ती का शत्रु ही सन्देह है! प्यार का आधार केवल नेह है!! (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
चलिये अब आगे से ऐसा न घटित हो.
जवाब देंहटाएंभविष्य में न उड़े, शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंएक सुंदर सा पिंजरा रखे, ओर सब को उस मै रखे:)
जवाब देंहटाएंफ़िर नही उडेगी जी.शुभकामनाये
बधिया कवर करली आपने.
जवाब देंहटाएंरामराम.
आगे से ऐसा न हो कृपया ध्यान रखें .....नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाये ...
जवाब देंहटाएंaage se dhyaan rahey :)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंवाह अलग अलग रसों की इन कविताओं के रसास्वादन हेतु धन्यवाद ।
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