पर्वत की है छटा निराली।
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सोमवार, 31 जनवरी 2011
"यह है अपना सच्चा भारत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
पर्वत की है छटा निराली।
रविवार, 30 जनवरी 2011
"मेरी अगली पुस्तक-हँसता-गाता बचपन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
हँसता-खिलता जैसा, इन प्यारे सुमनों का मन है। गुब्बारों सा नाजुक, सारे बच्चों का जीवन है।। नन्हें-मुन्नों के मन को, मत ठेस कभी पहुँचाना। नित्यप्रति कोमल पौधों पर, स्नेह-सुधा बरसाना ।। ये कोरे कागज के जैसे, होते भोले-भाले। इन नटखट गुड्डे-गुड़ियों के, होते खेल निराले।। भरा हुआ चंचल अखियों में, कितना अपनापन है। झूम-झूम कर मस्ती में, हँसता-गाता बचपन है।। |
"मुख्यमन्त्री ने किया दोनों पुस्तकों का लोकार्पण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शनिवार, 29 जनवरी 2011
"आया बसन्त" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
आ गईं बहारें मधुवन में, गुलशन में कलियाँ चहक उठीं, पुष्पित बगिया भी महक उठी, अनुरक्त हुआ मन का आँगन। आया बसन्त, आया बसन्त।१। चिड़ियों ने छाया नववितान, यौवन ने ली है अँगड़ाई, सूखी शाखा भी गदराई, बौराये आम, नीम-जामुन। आया बसन्त, आया बसन्त।२। हिम हटा रहीं पर्वतमाला, तम घटा रही रवि की ज्वाला, गूँजे हर-हर, बम-बम के स्वर, दस्तक देता होली का ज्वर, सुखदायी बहने लगा पवन। आया बसन्त, आया बसन्त।३। भँवरे रस पीते हुए मिले, मधुमक्खी शहद समेट रही, सुन्दर तितली भर पेट रही, निखरा-निखरा है नील गगन। |
शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
"पिछले वर्ष आज के ही दिन यह रचना लिखी थी!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“लगता है बसन्त आया है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
>> बृहस्पतिवार, २८ जनवरी २०१०
खेतों में बालियाँ झूलतीं, लगता है बसन्त आया है! केसर की क्यारियाँ महकतीं, बेरों की झाड़ियाँ चहकती, लगता है बसन्त आया है! आम-नीम पर बौर छा रहा, प्रीत-रीत का दौर आ रहा, लगता है बसन्त आया है! सूरज फिर से है मुस्काया , कोयलिया ने गान सुनाया, लगता है बसन्त आया है! (यह चित्र सरस पायस से साभार) शिव का होता घर-घर वन्दन, उपवन में छाया स्पन्दन, लगता है बसन्त आया है! (अन्य सभी चित्र गूगल सर्च से साभार) |
गुरुवार, 27 जनवरी 2011
"आज कुछ दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
छन्द-शास्त्र गायब हुए, मुक्त हुआ साहित्य। गीत और संगीत से, मिटा आज लालित्य।। (2) निकल गई है आत्मा, काव्य हुआ निष्प्राण। नवयुग में गुम हो गये, सतसय्या के बाण।। (3) कविता में मिलता नही, भक्ति सा आनन्द। फिल्मी गानों ने किये, भजन-कीर्तन बन्द।। (4) तुलसी, सूर-कबीर की, मीठी-मीठी तान। निर्गुण-सगुण उपासना, भूल गया इन्सान।। (5) प्रेमदिवस के नाम पर, पोषित भ्रष्टाचार। शिक्षित यौवन कर रहा, खुलकर पापाचार।। |
बुधवार, 26 जनवरी 2011
"अब बसन्त आने वाला है" (डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक")
पत्ते सारे सिमट गये हैं, अद्भुत् छटा वनों में फैली, कुसुम डाल पर चहक रहे हैं।। देते हैं सन्देश हमें यह, अब बसन्त आने वाला है। धूप गुनगुनी बोल रही है, अब जाड़ा जाने वाला है।। बासन्ती परिधान पहनकर सरसों पीली फूल रही है। गेंहूँ के कोमल बिरुओं पर, हरी बालियाँ झूल रहीं हैं।। प्रेमदिवस आने वाला है, मस्त नज़ारों में खो जाएँ। मौसम आमन्त्रण देता है, खुश होकर हम नाचें-गाएँ।। |
मंगलवार, 25 जनवरी 2011
"हबस" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
आदमी को, आदमी की हबस ही खाने लगी।। हबस के कारण, यहाँ गणतन्त्रता भी सो रही। दासता सी आज, आजादी निबल को हो रही।। पालिकाओं और सदन में, हबस का ही शोर है। हबस के कारण, बशर लगने लगा अब चोर है।। उच्च-शिक्षा में अशिक्षा, हबस बन कर पल रही। न्याय में अन्याय की ही, होड़ जैसी चल रही।। हबस के साये में ही, शासन-प्रशासन चल रहा। हबस के साये में ही नर, नारियों को छल रहा।। डॉक्टरों, कारीगरों को, हबस ने छोड़ा नही। मास्टरों ने भी हबस से, अपना मुँह मोड़ा नही।। बस हबस के जोर पर ही, चल रही है नौकरी। कामचोरों की धरोहर, बन गयी अब चाकरी।। हबस के बल पर हलाहल, राजनीतिक घोलते। हबस की धुन में सुखनवर, पोल इनकी खोलते।। चल पड़े उद्योग -धन्धे, अब हबस की दौड़ में। पा गये अल्लाह के बन्दे, कद हबस की होड़ में।। राजनीति अब, कलह और घात जैसी हो गयी। अब हबस शैतानियत की, आँत जैसी हो गयी।। |
सोमवार, 24 जनवरी 2011
"मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
अंग्रेजी से ओत-प्रोत, अपने भारत का तन्त्र, मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र। बिगुल बजा कर आजादी का, मौन हो गई भाषा, देवनागरी के सपनों की, गौण हो गई परिभाषा, सब सुप्त हो गये छंद-शास्त्र, अभिलुप्त हो गये मन्त्र। मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र।। |
कहाँ गया गौरव अतीत, अमृत गागर क्यों गई रीत, क्यों सूख गई उरबसी प्रीत, खो गया कहाँ संगीत-गीत, इस शान्त बाटिका में, किसने बोया ऐसा षडयन्त्र। मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र।। |
कभी थे जो जग में वाचाल, हुए क्यों गूँगे माँ के लाल, विदेशों में जाकर सरदार, हुए क्यों भाषा से कंगाल, कर रहे माँ का दूध हराम, यही है क्या अपना जनतन्त्र। मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र।। |
रविवार, 23 जनवरी 2011
शनिवार, 22 जनवरी 2011
एक जरूरी सूचना ...........
"श्रीमती आशा शैली की एक ग़ज़ल" प्रस्तोता-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
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