हाथ ठिठुरे-पाँव ठिठुरे, काँपता आँगन-सदन, कोट,चस्टर और कम्बल से ढके सबके बदन, आग का गोला शरद में पस्त सा पड़ने लगा।
सर्द मौसम को समेटे, जागता परिवेश है, श्वेत चादर को लपेटे, झाँकता रजनीश है, गगन के नयनों से शीतल अश्रुजल झड़ने लगा।
आगमन ऋतुराज का लगता बहुत ही दूर है, अभी तो हेमन्त यौवन से बहुत भरपूर है, मकर का सूरज नये सन्देश को गढ़ने लगा।
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गुरुवार, 13 जनवरी 2011
"धुँधलका बढ़ने लगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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मौसम के अनुकूल सटीक गीत!
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने धुँधलका बढ़ने लगा !
जवाब देंहटाएंरेल, हवाई यात्रा का तभी तो समय बदलने लगा !
गाड़ियाँ स्टेशन पर देर से आने लगी !
सच कहा आपने धुंधलका असर दिखलाने लगी !
खुबसूरत प्रस्तुति !
बहुत ठंड है..........बहुत ही सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबस लगता है इस कोहरे के मौसम में खिड़की पर बैठकर लिखी कविता...
जवाब देंहटाएंहमे तो चित्र देख कर ही ठंड लगने लग गई जी.
जवाब देंहटाएंठंड का मौसम, काँपी सुबहें।
जवाब देंहटाएंमौसम के अनुकूल.
जवाब देंहटाएंमकर संक्रान्ति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ...
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंmausam ke mutaabiq geet...makar sankraanti ki shubhkaamnaayein!
जवाब देंहटाएंलोहड़ी, मकर संक्रान्ति पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
जवाब देंहटाएंएकदम मौसम के अनुकूल पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर.
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति की शुभकामनायें.
वाह सुन्दर. मौसम तो बस यही गाने का है. सुन्दर कविता.
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