अब करते क्यों उसी से, सौतेला व्यवहार।१। जिस चिट्ठे के साथ में, जुड़ा आपका नाम। उस पर भी तो कीजिए, निष्ठा से कुछ काम।२। लेखन के संसार में, चलना नहीं कुचाल। जो सीधा-सीधा चले, होता वो खुशहाल।३। सोच-समझ कर ही सदा, यहाँ बनाओ मित्र। मन के मन्दिर में सदा, रक्खो उनके चित्र।४। बिना नम्रता के सभी, होते दुष्कर काम। अहमभाव से कभी भी, मिलता नहीं इनाम।५। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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बुधवार, 30 नवंबर 2011
"दोहे-साझा ब्लॉग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
मंगलवार, 29 नवंबर 2011
"दल उभरता नहीं, संगठन के बिना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
पग ठहरता नहीं, आगमन के बिना।। देश-दुनिया की चिन्ता, किसी को नहीं, मन सुधरता नहीं, अंजुमन के बिना। मोह माया तो, दुनिया का दस्तूर है, सुख पसरता नहीं, संगमन के बिना। खोखली देह में, प्राण कैसे पले, बल निखरता नहीं, संयमन के बिना। क्या करेगा यहाँ, अब अकेला चना, दल उभरता नहीं, संगठन के बिना। “रूप” कैसे खिले, धूप कैसे मिले? रवि ठहरता नहीं है, गगन के बिना। |
सोमवार, 28 नवंबर 2011
"आसमान में कुहरा छाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शीत बढ़ा, सूरज शर्माया। आसमान में कुहरा छाया।। चिड़िया चहकी, मुर्गा बोला, हमने भी दरवाजा खोला, लेकिन घना धुँधलका पाया। आसमान में कुहरा छाया।। जाड़ा बहुत सताता तन को, कैसे जाएँ सुबह भ्रमण को, सर्दी ने है रंग जमाया। आसमान में कुहरा छाया।। गज़क-रेवड़ी बहुत सुहाती, मूँगफली सबके मन भाती, दादी ने अलाव सुलगाया। आसमान में कुहरा छाया।। शीतल तुहिन कणों को खाते, गेंहूँ झूम-झूम लहराते, हरियाली ने रूप दिखाया। आसमान में कुहरा छाया।। |
रविवार, 27 नवंबर 2011
"आ गये फकीर हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
रोटियों को बीनने को, आ गये फकीर हैं। अमन-चैन छीनने को, आ गये हकीर हैं।। तिजारतों के वास्ते, बना रहे हैं रास्ते, हरी घास छीलने को, आ गये अमीर हैं। दे रहे हैं मुफ्त में, सुझाव भी-सलाह भी, बादशाह लीलने को, आ गये वज़ीर हैं। ज़िन्दगी के हाट में, बेचते हैं मौत को, धीरता को जीमने को, आ गये अधीर हैं। “रूप” वानरों सा है, दिल तो है लँगूर का, मनुजना को पीसने को, आ गये कदीर हैं। |
शनिवार, 26 नवंबर 2011
"खार पर निखार है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।। मुश्किलों में हैं सभी, फिर भी धुन में मस्त है, ताप के प्रकोप से, आज सभी ग्रस्त हैं, आन-बान, शान-दान, स्वार्थ में शुमार है। तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।। हो गये उलट-पलट, वायदे समाज के, दीमकों ने चाट लिए, कायदे रिवाज़ के, प्रीत के विमान पर, सम्पदा सवार है। तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।। अंजुमन पे आज, सारा तन्त्र है टिका हुआ, आज उसी वाटिका का, हर सुमन बिका हुआ, गुल गुलाम बन गये, खार पर निखार है। तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।। झूठ के प्रभाव से, सत्य है डरा हुआ, बेबसी के भाव से, आदमी मरा हुआ, राम के ही देश में, राम बेकरार है। तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।। |
शुक्रवार, 25 नवंबर 2011
‘‘बचा लो पर्यावरण’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
घटते वन, बढ़ता प्रदूषण, गाँव से पलायन शहरों का आकर्षण। जंगली जन्तु कहाँ जायें? कंकरीटों के जंगल में क्या खायें? मजबूरी में वे भी बस्तियों में घुस आये! -- क्या हाथी, क्या शेर? क्या चीतल, क्या वानर? त्रस्त हैं, सभी जानवर। खोज रहे हैं सब अपना आहार, हो रहे हैं नर अपनी भूलों का शिकार। -- अभी भी समय है, लगाओ पेड़, उगाओ वन, हो सके तो बचा लो, पर्यावरण! ○ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' खटीमा (उत्तराखण्ड) |
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
"हमारे नेता महान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बेटी है, बँगला है, खेती है, घपलों में घपले हैं, दिल काले हैं कपड़े उजले हैं, उनके भइया हैं, इनके साले हैं, जाल में फँस रहे, कबूतर भोले-भाले हैं, गुण से विहीन हैं अवगुण की खान हैं जेबों में रहते इनके भगवान हैं इनकी दुनिया का नया विज्ञान है दिन में इन्सान हैं रात को शैतान हैं परदा डालते हैं भाषण से घोटालों पर तमाचे भी पड़ते हैं कभी-कभी गालों पर आदत हो गई है लातों के भूतों को खाते हैं यदा-कदा जनता के जूतों को न कोई धर्म है न ही ईमान है मुफ्त में करते नही अहसान हैं हर रात को बदलते नये मेहमान है हमारे देश के नेता सचमुच महान हैं! |
बुधवार, 23 नवंबर 2011
‘‘हमसफर बनाइए’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
ज़िन्दगी के रास्तों पे कदम तो बढ़ाइए। इस सफर को नापने को हमसफर बनाइए।। राह है कठिन मगर लक्ष्य है पुकारता, रौशनी से आफताब मंजिलें निखारता, हाथ थामकर डगर में साथ-साथ जाइए। ज्वार का बुखार आज सिंधु को सता रहा, प्रबल वेग के प्रवाह को हमें बता रहा, कोप से कभी किसी को इतना मत डराइए। काट लो हँसी-खुशी से, कुछ पलों का साथ है, चार दिन की चाँदनी है, फिर अँधेरी रात है, इन लम्हों को रार में, व्यर्थ मत गँवाइए। पुंज है सुवास का, अब समय विकास का, वाटिका में खिल रहा, सुमन हमारी आस का, सुख का राग, आज साथ-साथ गुनगुनाइए। |
सोमवार, 21 नवंबर 2011
"हाँ यही मौत का लक्षण है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
हाँ यही मौत का लक्षण है!! उठकर बैठो आँखें खोलो अपने मुख से कुछ तो बोलो हिलना-डुलना क्यों बन्द हुआ तन-मन क्यों ब्रह्मानन्द हुआ सब ढला आज सिंगार-साज चलती धारा क्यों रुकी आज क्या यही मौत का लक्षण है? मातम पसरा सारे घर में आँसू नयनों के कोटर में सब सजा रहे अन्तिम डोली देंगे काँधा सब हमजोली फिर चिता सजाई जाएगी कंचन काया जल जाएगी क्या यही मौत का लक्षण है? जब याद तुम्हारी आयेगी तब यादें ही रह जाएँगी जीवन की रीत निराली है पर मौत बहुत बलशाली है जिन्दगी चार दिन का खेला फिर उजड़ जायेगा ये मेला क्या यही मौत का लक्षण है? हाँ यही मौत का लक्षण है!! |
रविवार, 20 नवंबर 2011
"यह क्षण माता जी के जीवन में अब कभी नहीं आयेंगे।" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शनिवार, 19 नवंबर 2011
"जन्म दिवस पर शत्-शत् नमन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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