जलाया खून है अपना, पसीना भी बहाया है। कृषक ने अन्न खेतों में, परिश्रम से कमाया है।। सुलगते जिसके दम से हैं, घरों में शान से चूल्हे, उसी पालक को, साहूकार ने भिक्षुक बनाया है। मुखौटा पहनकर बैठे हैं, ढोंगी आज आसन पर, जिन्होंने कंकरीटों का, यहाँ जंगल उगाया है। कहें अब दास्तां किससे, अमानत में ख़यानत है, जमाखोरों का अब अपने, वतन में राज आया है। पहन खादी की केंचुलिया, छिपाया “रूप” को अपने, रिज़क इस देश का खाकर, विदेशी गान गाया है। |
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बुधवार, 2 नवंबर 2011
"कंकरीटों का यहाँ जंगल उगाया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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सन्नाट कटाक्ष है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट....
जवाब देंहटाएंजबरदस्त व्यंग्य सर,
जवाब देंहटाएंसादर...
पहन खादी की केंचुलिया, छिपाया “रूप” को अपने,
जवाब देंहटाएंरिज़क इस देश का खाकर, विदेशी गान गाया है।
बेमिसाल...
गहरा व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर...वाह!
जवाब देंहटाएंbahut achcha vyang...maja aa gaya.
जवाब देंहटाएंमुखौटा पहनकर बैठे हैं, ढोंगी आज आसन पर,
जवाब देंहटाएंजिन्होंने कंकरीटों का, यहाँ जंगल उगाया है।
पैना व्यंग्य.
करारा कटाक्ष्।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन व्यंग्य!
जवाब देंहटाएं---
कल 04/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
bahut hi karara vyangya
जवाब देंहटाएंआज 03 - 11 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
_____________________________
सही कहा आपने... सबुत और हरकते तो यही कहती है... फिर भी बच जाते हैं ये अमानत में खयानत रखने वाला...
जवाब देंहटाएंकहें अब दास्तां किससे, अमानत में ख़यानत है,
जवाब देंहटाएंजमाखोरों का अब अपने, वतन में राज आया है।
पहन खादी की केंचुलिया, छिपाया “रूप” को अपने,
"isliye" बच जाते हैं ये अमानत में खयानत रखने वाला...
jungle bache hee kahaan hai aajkal ke zamaane mein??
जवाब देंहटाएंजो किसान हमारा पेट पालता है आज उसे ही हम बेघर, बेजमीन करने पर ऊतारूं हैं, बहुत बड़ी समस्या को आपने कविता के शब्दों में पिरोकर श्रेष्ठ कार्य किया है, बधाई।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन .........
जवाब देंहटाएं