गीत, खुशबू और थोड़ी सी फुहार बस यही तो जिन्दगी की है बहार आम्र तरु-फुनगी की ललछौंही छटा घिर के छम-छम बरसती नभ से घटा हरित-गर्भा यह धरा होने लगे तब समझना सृष्टि हित कुछ सुख बँटा फिर से जब आने लगे रुत पर निखार बस यही तो जिन्दगी की है बहार खेतिहर ने हल उठाया हरष कर दे चले आशीष बादल बरस कर हुमक-कर बहने नदी-नाले लगे उतर आया स्वर्ग इस पल धरा पर पक्षियों की खेत में उतरे कतार बस यही तो जिन्दगी की है बहार घन-गगन पर्वत से जब मिलने लगे बाग सारा मोद में खिलने लगे मन्द चलती पवन भी इठला उठे और उदासी की शिला हिलने लगे बाग में जाने का मन हो बार-बार |
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मंगलवार, 15 नवंबर 2011
‘‘जिन्दगी की है बहार-श्रीमती आशा शैली’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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गीत, खुशबू और थोड़ी सी फुहार
जवाब देंहटाएंबस यही तो जिन्दगी की है बहार
बहुत खूब
सच ऐसी ही है जिंदगी की बहार!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति!
गीत, खुशबू और थोड़ी सी फुहार
जवाब देंहटाएंबस यही तो जिन्दगी की है बहार... bhaut hi khubsurat....
खूबसूरत प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंमेरे पोस्ट पर स्वागत है...
गीत, खुशबू और थोड़ी सी फुहार
जवाब देंहटाएंबस यही तो जिन्दगी की है बहार...
वाह!! बहुत खूब....
सादर बधाई...
न जाने कितने आनन्ददायक तत्व हैं प्रकृति में...सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंफिर से जब आने लगे रुत पर निखार
जवाब देंहटाएंबस यही तो जिन्दगी की है बहार....
बहारें फिर भी आती ही रहती हैं...
wah...
जवाब देंहटाएंprakriti ka sundar chitran..
sundar prastuti..
सुंदर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं