मित्रों! इन दिनों मेरी तबियत खराब चल रही है। जिसके चलते नया कुछ भी नहीं लिख पा रहा हूँ। आज प्रस्तुत है गुरूसहाय भटनागर की एक ग़ज़ल! मोहब्बत की हसीं राहें तुम्हारे प्यार को खुश्बू बसा, इस दिल में लाया हूँ मोहब्बत की हसीं राहों में, यादें छोड़ आया हूँ कभी जब याद करके गाँव की, गलियों से गुजरेगें मैं अपनी खिल-खिलाहट के वो मंजर छोड़ आया हूँ मेरी उल्फत की यादें, जब कभी तुम भूल जाओगे चुभाने के लिये दिल में, मैं काँटे छोड़ आया हूँ जहाँ में खुश्बू-ए-गुल सा महकना, घर को महकाना तुम्हारे बन्द कमरों में, उजाले छोड़ आया हूँ तमन्नाओं को मेरी, तुमने अपना रंग दे डाला दुआयें खुशनसीबी की, तुम्हें मैं छोड़ आया हूँ उन्हें अब दायरों में बाँधना, “बदनाम” करना है महकने और महकाने को, गुलशन छोड़ आया हूँ। (गुरू सहाय भटनागर "बदनाम") |
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गुरुवार, 6 सितंबर 2012
"ग़ज़ल - गुरूसहाय भटनागर बदनाम" (प्रस्तोता- डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंचलिये ये ही सही ,अच्छी थी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गजल
जवाब देंहटाएंबदनाम होकर लिख रहे हैं बहुत खूब
फिर नाम होने की जरूरत क्या है !
main shaayar badnaam....main chala...main chala...beautiful composition Bhatnagar jee kee....aap apni sehat ka khayal rakhiye guru jee....aap jaldi achey ho aisee dua hai hamaari.
जवाब देंहटाएंबदनाम जी की रचना उनके नाम से मेल नहीं खाती (ये तो अच्छी खासी सुनाम कमाने वाली रचना है)
जवाब देंहटाएं/:-)
सुन्दर ग़ज़ल |
जवाब देंहटाएंअतिशीघ्र आपके स्वास्थ्य लाभ की कामना , शास्त्री जी !बहुत सुंदर गजल !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर गजल...
जवाब देंहटाएं:-)
आप स्वास्थ्य लाभ शीघ्र करें।
जवाब देंहटाएं