मेरी एक पुरानी ग़ज़ल
हमारा ही नमक खाते, हमीं पर वार करते हैं।
जहर मॆं बुझाकर खंजर, जिगर के पार करते हैं।।
शराफत ये हमारी है, कि हम बर्दाश्त करते हैं,
नहीं वो समझते हैं ये, उन्हें हम प्यार करते हैं।
हमारी आग में तपकर, कभी पिघलेंगे पत्थर भी,
पहाड़ों के शहर में हम, चमन गुलज़ार करते हैं।
कहीं हैं बर्फ के जंगल, कहीं ज्वालामुखी भी हैं,
कभी रंज-ओ-अलम का हम, नहीं इज़हार करते हैं।
अकीदा है, छिपा होगा कोई भगवान पत्थर में,
इसी उम्मीद में हम, रोज ही बेगार करते हैं।
नहीं है “रूप” से मतलब, नहीं है रंग की चिन्ता,
तराशा है जिसे रब ने, उसे स्वीकार करते हैं।
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013
"हमीं पर वार करते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 27 फ़रवरी 2013
"मस्त बसन्त बहार में..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आई है
फिर सुबह सुहानी, बैठे
हैं हम इन्तज़ार में।
हार गये थककर दो नैना, दीवाने हो गये प्यार में।।
तन रूखा है-मन भूखा है, उलझे काले-काले गेसू,
कैसे आयें पास तुम्हारे, फँसे हुए हम बीच धार में।
सपनों क दुनिया में हम तो, खोये-खोये रहते हैं,
नहीं सुहाता कुछ भी हमको, मायावी संसार में।
ना ही चिठिया ना सन्देशा, ना कुछ पता-ठिकाना है,
झुलस रहा है बदन समूचा, शीतल-सुखद बयार में।
सूरज का नहीं "रूप" सुहाता, चन्दा
अगन लगाता है,
वीराना है मन का गुलशन, मस्त बसन्त बहार में।
|
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013
"ग़ज़ल-लिखना नहीं आया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कटी है उम्र
गीतों में, मगर लिखना नहीं
आया।
तभी तो हाट में
हमको, अभी बिकना नहीं
आया।
ज़माने में
फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ,
उन्हें तो एक
डाली पर कभी टिकना नहीं आया।
सम्भाला होश है
जबसे, रहे हम मस्त
फाकों में,
लगें किस पेड़
पर रोटी, हुनर इतना नहीं
आया।
मिला ओहदा बहुत
ऊँचा, मगर किरदार हैं
गिरवीं,
तभी तो देश की
ख़ातिर हमें मिटना नहीं आया।
नहीं पहचान
पाये "रूप" को अब तक दरिन्दों के,
पहाड़ा देशभक्ति का
हमें गिनना नहीं आया।
|
सोमवार, 25 फ़रवरी 2013
"मेरा एक पुराना संस्मरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रविवार, 24 फ़रवरी 2013
"छन्द क्या होता है?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
“गीत मेरा:- स्वर-अर्चना चावजी का...” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज सुनिए मेरा यह गीत! इसको मधुर स्वर में गाया है - अर्चना चावजी ने! मंजिलें पास खुद, चलके आती नही! अब जला लो मशालें, गली-गाँव में, रोशनी पास खुद, चलके आती नही। राह कितनी भले ही सरल हो मगर, मंजिलें पास खुद, चलके आती नही।। लक्ष्य छोटा हो, या हो बड़ा ही जटिल, चाहे राही हो सीधा, या हो कुछ कुटिल, चलना होगा स्वयं ही बढ़ा कर कदम- साधना पास खुद, चलके आती नही।। दो कदम तुम चलो, दो कदम वो चले, दूर हो जायेंगे, एक दिन फासले, स्वप्न बुनने से चलता नही काम है- जिन्दगी पास खुद, चलके आती नही।। ख्वाब जन्नत के, नाहक सजाता है क्यों, ढोल मनमाने , नाहक बजाता है क्यों , चाह मिलती हैं, मर जाने के बाद ही- बन्दगी पास खुद, चलके आती नही।। |
शनिवार, 23 फ़रवरी 2013
"कैसी है ये आवाजाही" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पहरा देते
वहाँ सिपाही।
मातृभूमि के
लिए शहादत,
देते हैं
जाँबाज सिपाही।।
कैसे सुधरे
दशा देश की,
शासन की चलती
मनचाही।
सुरसा सी
बढ़ती महँगाई,
मचा रही है
यहाँ तबाही।
जिनको राज-पाठ सौंपा था,
करते वो हर जगह उगाही।
इसीलिए तो घूस
माँगती,
अफसरशाही-नौकरशाही।
देशभक्त की
किस्मत फूटी,
गद्दारों को
बालूशाही।
लोकतन्त्र के
रखवालों को,
रोज चाहिए, सुरा-सुराही।
दोराहे पर जीवन भटका,
कैसी है ये
आवाजाही।
उम्र ढल गई
चलते-चलते,
लक्ष्य नहीं
पाता है राही।
|
शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013
"स्वरावलि" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘अ‘’
‘‘अ‘’ से अल्पज्ञ सब, ओम् सर्वज्ञ है।
ओम् का जाप, सबसे बड़ा यज्ञ है।।
‘‘आ’’
‘‘आ’’ से आदि न जिसका, कोई अन्त है।
सारी दुनिया का आराध्य, वह सन्त है।।
‘‘इ’’
‘‘इ’’ से इमली खटाई भरी, खान है।
खट्टा होना खतरनाक, पहचान है।।
‘‘ई’’
‘‘ई’’ से ईश्वर का जिसको, सदा ध्यान है।
सबसे अच्छा वही, नेक इन्सान है।।
‘‘उ’’
उल्लू बन कर निशाचर, कहाना नही।
अपना उपनाम भी यह धराना नही।।
‘‘ऊ’’
ऊँट का ऊँट बन, पग बढ़ाना नही।
ऊँट को पर्वतों पर, चढ़ाना नही।।
‘‘ऋ’’
‘‘ऋ’’ से हैं वह ऋषि, जो सुधारे जगत।
अन्यथा जान लो, उसको ढोंगी भगत।।
‘‘ए’’
‘‘ए’’ से है एकता में, भला देश का।
एकता मन्त्र है, शान्त परिवेश का।।
‘‘ऐ’’
‘‘ऐ’’ से तुम ऐठना मत, किसी से कभी।
हिन्द के वासियों, मिल के रहना सभी।।
‘‘ओ’’
‘‘ओ’’ से बुझती नही, प्यास है ओस से।
सारे धन शून्य है, एक सन्तोष से।।
‘‘औ’’
‘‘औ’’ से औरों को पथ, उन्नति का दिखा।
हो सके तो मनुजता, जगत को सिखा।।
‘‘अं’’
‘‘अं’’ से अन्याय सहना, महा पाप है।
राम का नाम जपना, बड़ा जाप है।।
‘‘अः’’
‘‘अः’’ के आगे का स्वर,अब बचा ही नही।
इसलिए, आगे कुछ भी रचा ही नही।।
|
गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013
"ग़ज़ल-ज़िन्दग़ी का सहारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हमें जिसने ज़ुल्मों से मारा हुआ है।
वही ज़िन्दग़ी
का सहारा हुआ है।।
जिसने सिखाया
है दरिया को चलना,
वो मौज़ों से
घायल किनारा हुआ है।
नहीं एक-दूजे
के बिन काम चलता,
हम उसके हैं
और वो हमारा हुआ है।
चुभन दे रहे
हैं मगर प्यार भी है,
गुलाबों को
दिल से सँवारा हुआ है।
मचलते हैं जब
वो, महकते हैं तब
हम,
उन्हीं के लिए
"रूप" धारा हुआ है।
|
"मजबूरी का नाम गांधी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आजादी को
छः दशक
मगर अब भी
गांधी जिन्दा हैं
हमारे देश में...!
–
कोई बनता है गांधी
शौक से..
और कोई बनता है
मजबूरी में...!
--
मुलायम चमड़े की ...
और कोई पहनता है
प्लास्टिक की
खाली बोतलों में
कत्तरों की
पट्टी बनाकर ..!
मेरे देश के.
यही तो हैं असली
गांधी !
क्योंकि
मजबूरी का नाम
महात्मा गांधी!
|
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि ...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...